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जिस जिस गुणस्थान पर जहाँ-जहाँ जितने-जितने बंध हेतु मौजूद रहेंगे उस-उस गुणस्थान पर रहे हुए जीव को उस प्रकार से उतने प्रमाण में कर्मबंध होता रहेगा। अतः साधक को अशुभ कर्मबंध से, बंधहेतुओं से बचना ही होगा। बंधहेतु जो अध्यवसाय-परिणामरूप है और ये मनोगत है, तथा जड साधन मन हमारे हाथ में है। हम चाहें वैसा मन का उपयोग कर सकते हैं । लगाम भी हमारे हाथ में है, हम चाहे जैसे अध्यवसाय-परिणाम रख सकते हैं। ये ही परिणाम है जो कर्म बंधाते भी हैं और कर्म खपाते भी हैं । बंध और निर्जरा दोनों में सहायक है । बस, मात्र साधक पर आधार रहता है, वह मन का कैसा उपयोग करता है। १३ गुणस्थानों पर लेश्या की स्थिति
आप जानते हैं कि लेश्या यह अध्यवसायों की तरतमता को कहते हैं । एक समान क्रिया होने के बावजूद भी लेश्याओं की तरतमता सर्वत्र प्रति व्यक्ति भिन्न रहती ही है। उदाहरणार्थ भूख लगने पर खाने की प्रवृत्ति करनेवाले छः ही मित्रों की विचारों की तरतमता-लेश्या भिन्न रहती है। इनमें नीचे के क्रमसे प्रथम ३ अशुभ हैं जबकि शेष ३ शुभ है । जिस जीव की जैसी लेश्या होगी उसको उस हिसाब से कर्म का बंध होगा। १३ गुणस्थानवी जीव जो जिस गुणस्थान पर आरूढ होगा वहाँ भी उस-उस प्रकार की लेश्या रहेगी। चतुर्थ कर्मग्रन्थ षडशीति की ५० वी गाथा में यह निर्देश किया हैछसु-सव्वा, तेउ तिगं, इगि-छसु-सुक्का, अजोगी-अल्लेसा।
सिर्फ १ शक्ल लेश्या ही रहती है। १३ | सिर्फ १ शुक्ल लेश्या ही रहती है। १२ सिर्फ १ शुक्ल लेश्या ही रहती है। ११ । सिर्फ १ शुक्ल लेश्या ही रहती है। १० ॥ सिर्फ १ शुक्ल लेश्या ही रहती है। ९ सिर्फ १ शुक्ल लेश्या ही रहती है। ८ शुभ ३ लेश्याएं रहती हैं।
___७ शुभ ३ लेश्याएं रहती हैं।
६ ६ लेश्याएं रहती हैं। ___५ ६ लेश्याएं रहती हैं।
४ ६ लेश्याएं रहती हैं। ____३ ६ लेश्याएं रहती हैं। ___२ ६ लेश्याएं रहती हैं।
६ लेश्याएं रहती हैं।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा