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और उसकी प्रवृत्ति आत्मा को भारी कर्म बंधाने में कारणरूप बनती है । ४) • कषाय राग द्वेष क्रोध मान माया और लोभरूप सभी कषाय आत्मा को भारी कर्म बंधाने में कारण रूप ही बनते हैं । अन्य सभी पाप प्रवृत्ति आदि में कषाय मुख्य अनुगत कारणरूप है । और अन्त में- ५) योग मन-वचन-काया के अशुभ - शुभ योग आत्मा को कर्म का बन्ध कराने में हेतु हैं। हाँ, अशुभ योग अशुभ पाप
कर्म बंधाएगा, जबकि शुभयोग शुभ पुण्यकर्म बंधाएगी। लेकिन कर्म बंध में कारण बनता है । इस तरह पाँचों प्रकार के बंध हेतुभूत ये मिथ्यात्वादि जो सतत हमारी आत्मा के साथ लगे हुए हैं ये भारी कर्म बंधाकर आत्मा को कर्मग्रस्त - कर्म की जंजीर में बांधकर जकडकर रखता है । उन सब की प्रवृत्तियाँ भी सतत चलती रहती है। इसके कारण आत्मा पुनः इनमें फसकर रहती है । पुनः कर्म का बंध, पुनः बंधे हुए कर्म का उदय, पुनः उदय में दुःख की स्थिति, पुनः दुःख के उदय में वैसी पाप की प्रवृत्ति करना, पुनः कर्म बांधना, पुनः कर्म का उदय होता रहे। इस तरह कर्म संयोग का यह विषचक्र सतत चलता ही रहता है । कहीं भी छुटकारा होने की संभावना नहीं दिखती है। ये पाँचों बंध हेतु आत्मा के लिए
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क्या नुकसान करते हैं ? कैसा नुकसान करते हैं यह भी देखना जरूरी है।
मिथ्यात्वादि बंध हेतुओं से आत्मगुणों का नुकसान
बंध हेतु
आत्म गुणघात
१) मिथ्यात्व
सम्यक्त्व गुण को रोकता है।
२) अविरति
विरति - व्रत - पच्चक्खाण रोकता है।
३) प्रमाद
अप्रमत्तभाव को रोकता है।
४) कषाय
वीतराग भाव को रोकता है।
५) योग
अयोगी अवस्था को रोकता है।
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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