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वह साधु है । ३) जो स्त्री के साथ एक आसन पर न बैठे वह साधु है । ४) स्त्रियों की मनोहर आकर्षक मनोरम - आह्लादक इन्द्रियों का दर्शन-- स्मरण - तथा चिंतन आदि न करें वह साधु है । ५) जो दिवालों-खिडकियों के पीछे छिपकर या परदे के पीछे से भी छिद्रों आदि में से रतिक्रीडा-प्रणय कलह आदि न देखे वह साधु है । ६) पूर्वकाल में स्त्रियों के साथ जिन भोगों को भोगा है उसका सर्वथा स्मरण न करें वह साधु है । ७) जो घी आदि विगइयों
भरपूर आहार न करें वह साधु है । ८) प्रमाण - परिमाण का उल्लंघन करके अतिमात्रा में आहार न करे वह साधु है । ९) शरीर की शोभा बढाने के साधनों द्वारा जो शरीर की शोभा नहीं बढाता है वह साधु है । और अन्तिम १० ) जो स्त्रियों के मनोहर शब्द-रूप-रस-गंध और स्पर्शादि विषयों में आसक्त नहीं होता है वह साधु है ।
इस तरह उपरोक्त दश प्रकार के समाधि स्थान हैं। जो नौं प्रकार की वाड के साथ पूरी तरह साम्यता रखते हैं । इनका पूर्णरूप से अच्छी तरह पालन करनेवाला साधक समाधिभाव में स्थिर रहता है। उसे फिर असमाधि अस्थिरता - चिंतादि दोषों में जाने की आवश्यकता ही नहीं रहती है। समाधिभाव आत्मा के लिए बहुत ही ज्यादा उपयोगी है । ४ कषायों से रहित जीवन
गुरूपद पर बिराजमान आचार्य, उपाध्याय या साधु के जीवन में क्रोध - मान-माया तथा लोभ इन चारों कषायों की स्थिति सर्वथा क्षीणप्राय हो जानी चाहिए। कषाय स्व गुण घातक होते हैं और कषायों का व्यवहार करने पर दूसरों को भी नुकसान पहुँचाते हैं व्यवहार अतः गुरु के जीवन में कषायों की सर्वथा मंदता होनी चाहिए ।
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५ इन्द्रियों का संवरण, नियंत्रण + ९ ब्रह्मचर्य की वाड का पालन और ४ कषाय की मुक्तता ५ +९+ ४ १८ । इन १८ गुणों से युक्त गुरू का जीवन हो । तथा... दूसरे प्रकार से और १८ गुणों का मिश्रण करते हुए कहते हैं कि ५ महाव्रत से युक्त हों - जिससे पाँचो बडे पाप छूट जाते हैं
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प्राणातिपात विरमण महाव्रत से - प्राणी हिंसारूप पाप से छूटता है । मृषावाद विरमण महाव्रत से - झूठ - असत्य का पाप छूटता है । अदत्तादान विरमण महाव्रत से - चोरी स्तेयवृत्ति का पाप छूटता है । ४ मैथुन विरमण महाव्रत से - अब्रह्म - मैथुन सेवन का पाप छूटता है । परिग्रह परिमाण विरमण महाव्रत से - अति संग्रहखोरी का पाप छूटता है ।
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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