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भी किसी भक्त को धर्ममार्ग ही दिखाएँगे। उसके लिए आज्ञा देंगे। उस आज्ञारूप धर्म काही यथार्थ आचरण करके भक्त अपना उद्धार - कल्याण साध सकता है ।
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बात गुरु के सामने भी उसी तरीके से होगी । गुरु भी किसी जीव का कल्याण कैसे करेंगे? कोई जादू चमत्कार गुरु भी नहीं कर सकते हैं। आखिर वे भी प्रभु द्वारा उपदिष्ट धर्म बताएँगे - धर्माचरण करने की ही आज्ञा देंगे। उसमें भी विशेष रूप से दो तुओं का लक्ष धर्म के पीछे रखते हैं। सर्व प्रथम पाप छुडाने का । पाप की प्रवृत्तियाँ बन्द कराने का । और दूसरा .. भूतकाल के किये हुए पाप कर्मों का क्षय कराना -निर्जरा कराना । अतः धर्म संवर एवं निर्जराप्रधान है। निर्जरारूप धर्म कराने में विधेयात्मकता आ जाती है। विधेयरूप = करनेरूप आचरणात्मक धर्म कराते हैं। और पाप निवृत्तिरूप निषेधात्मक आज्ञा से पाप प्रवृत्ति का त्याग कराने का काम करते हैं। यह संवररूप धर्म है । पुण्याश्रव का भी मार्ग उपादेय है यह भी सिखाने-समझाने-कराने का लक्ष्य रखते हैं । इस तरह गुरु भी दोनों प्रकार धर्म कराके ही किसी जीवात्मा का उद्धार - कल्याण कर सकते हैं। अतः अन्ततोगत्वा धर्म ही उद्धारक - कल्याणक है । परन्तु धर्म सिखाने - समझाने - बताने - करानेवाले देव - गुरु सहायक होते हैं ।
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जैसे दवाई से ही रोग मिटता है लेकिन उस दवाई के लिए जानकार - समझदार डॉक्टर- वैद्य-हकीम कुशल होने तो चाहिए। बिना डॉक्टर के दवाई के जानकार कौन रहेंगे ? दवाई की दुकान में हजारों दवाइयाँ बेचनेवाला व्यापारी भी स्वयं अपने आप अपने रोग की दवाई खुद नहीं कर सकता है। वह स्वयं जानता ही नहीं है । वह दवाई के नाम-भाव जानकर बेचने का व्यापार कर सकता है। रोगों के अनुसार गुणधर्मों की जानकारी के साथ दवाइयों का उसे परिचय नहीं होता है । अतः किस रोग पर कौनसी दवाई काम आएगी ? इससे कितना फायदा होगा ? या यह दवाई इसकी प्रकृती के अनुरूप होगी या प्रतिकूल होगी ? इत्यादि सब जानकारी व्यापारी को नहीं डॉक्टर को होती है । अतः सुयोग्य वैद्य-हकीम - डॉक्टर आदि ही ज्यादा विश्वसनीय रहते हैं ।
ठीक इसी तरह जीवों के पाप कर्म रूप आत्मिक रोगों को जाननेवाले देव - गुरु होते हैं । ऐसे भवरोगों को जानकर उनका उपचार करना, कैसे मिटाना ? क्षय कैसे करना ? यह विषय जाननेवाले देव, गुरु ही होते हैं। कैसे कैसे कर्म यह जीव कर बैठा है ? किन कर्मों के उदय से आज वर्तमान में कैसी पाप की प्रवृत्ति जीव कर रहा है ? क्यों कर रहा है ? यह पाप नहीं छुडाएँगे तो इस पाप की प्रवृत्ति से कौन सा कर्म बंधेगा ? किस कर्म
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आध्यात्मिक विकास यात्रा