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१८ पापस्थानकों का सामान्य स्वरूप- जीवों के द्वारा की जाती अशुभ हिंसादि प्रवृत्ति पाप रूप है । वैसे तो संसार में अनन्त जीव हैं। अनन्त ही जीव अनन्त प्रकार की हिंसादि पाप की प्रवृत्तियाँ करते ही रहते हैं।
और पाप की प्रवृत्ति करके अशुभ पाप कर्मों का उपार्जन भी करते ही रहते हैं । अतः जीवों की दृष्टि से पापों के अनन्त प्रकार बन जाएँगे। परन्तु परमात्मा ने संक्षेप रूपसे पाप की १८ मुख्य जातियाँ दर्शाई हैं । वे इस प्रकार हैं
पाणाइवायमलियं, चोरिक्कं-मेहूणं दविणमुच्छं। कोहं माणं-मायं लोभं पिज्जं तहा दोषं च ॥ कलहं अभक्खाणं पेसूनं रइ-अरइ समाउत्तं । परपरिवायं मायामोसं मिच्छत्तसल्लं च ॥ वोसिरिसु इमाई मुक्ख मग्ग संव्सग्गविग्धभूआई।
दुग्गइनिबंधणाइं अट्ठारस पावठाणाइं॥ . १) प्राणातिपात, २) मृषावाद-(झूठ), ३) अदत्तादान, (चोरी), ४) मैथुन सेवन, ५) द्रव्यमूर्छा-परिग्रह, ६) क्रोध,७) मान, ८) माया, ९) लोभ, १०) राग, ११) द्वेष, १२) कलह, १३) अभ्याख्यान, १४) पैशून्य, १५) रति-अरति, १६) परपरिवाद-परनिंदा, १७) माया-मृषावाद, और १८ वा-मिथ्यात्वशल्य । ये १८ पापस्थानक-पाप की प्रमुख जातियाँ हैं । उपमा के दृष्टान्तों से इन १८ पापों को निम्न दर्शित चित्रानुसार उपमा दी गई है। सामान्यरूप से कौन सा पाप कैसा है ? किस प्रकार का है? क्या स्वरूप है? कैसा स्वरूप है? यह प्रतीकरूप १८ चित्रों के द्वारा बोधक रूप में दर्शाया गया है। १) प्राणातिपात- प्राणों को धारण करनेवाले प्राणियों-जीवों के प्राणों का नाश करना, हिंसा, वध, मारना आदि पाप की अशुभ प्रवृत्ति को प्राणातिपात नामक प्रथम पाप कहते
२) मृषावाद- मृषा = असत्य-झूठ, वाद = कहना-बोलना। कन्या व्यापार, पशु-धनादि सेंकडों निमित्तों से झूठ बोलना। चित्र में तोल-माप में झूठ बताया है। ३) अदत्तादान- दत्त = दिया हुआ, अदत्त = न दिया हुआ, आदान = लेना, ग्रहण करना, वस्तु के मालिक-स्वामी के द्वारा अपनी वस्तु न देने पर भी बिना आज्ञा के पूछे बिना ही अपने आप ले लेना यह चोरी है । डाका डालना, वस्तु ले लेना भी चोरी है । चित्र में किसी के घर में घुसकर तिजोरी का ताला तोडकर धन-माल मिल्कत उठा जाना चोरी करना दिखाया गया है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा