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________________ अत्यन्त अनिवार्य है । अन्त में काल की मर्यादावाला, आयुष्य भी एक प्राण है। आयुष्य 1 कर्म जो पिछले जन्म में बांधकर जीव साथ लेकर आया है तदनुसार निर्धारित काल मान का आयुष्य भी एक प्राण है। संसार के भिन्न-भिन्न जीवों को भिन्न-भिन्न प्राणों की प्राप्ति अपने कर्मानुसार होती है । इन्द्रिय पर्याप्ति और प्राणों का कोष्ठक इन्द्रिय १ स्पर्शेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय जीव दो इन्द्रियवाले जीव २ स्पर्श, रस तीन इन्द्रियवाले जीव चार इन्द्रियवालें जीव. असंज्ञि, पंचेन्द्रियवाले जीव १३ स्पर्श, रस, घ्राण प्राण ४ स्पर्श, काया, श्वासोच्छ्वास, संज्ञि पंचेन्द्रियवाले ५ इन्द्रिय + मन जीव आयुष्य ६ स्प. र. व. का. श्वा. आ. ७ स्प. र. घ्रा. व. का. श्वा. आ. ४ स्पर्श, रस, घ्राण, ८ स्प. र. घ्रा. चक्षु चक्षु व. का. श्वा. आ. ५ स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु श्रवण ९ स्प. र घ्रा. च. श्र. व. का. श्वा. आ. १० स्प. र. घ्रा. च. श्र. व. का. वा. आ. पर्याप्ति ४ आ. श. इ. श्वा. ५ आ. श. इ. श्वा भा. ५ आ. श. इ. श्वा . भा. ५ आ. श. इ. श्वा . भा. ५ आ. श. इ. श्वा भा. ६ आ. श. इ. श्वा. भा. + मन + मन उपरोक्त ६ पर्याप्तियों और १० प्राणों के स्वरूप को समझने से संसार में रहनेवाले जीवों के स्वरूप का अच्छी तरह विस्तृत ख्याल आ जाता है। जिससे ऐसे उन प्रकार के जीवों की हिंसा - विराधना से कैसे बचे यह ख्याल आता है । चौथे गुणस्थान पर रहनेवाला साधक संसारी जीवों का स्वरूप भलीभांति अच्छी तरह जैसा स्वरूप है ठीक वैसा यथार्थ जानता पहचानता है । और अपनी श्रद्धा - मान्यता सब जीवों के बारे में यथार्थ बनाता है। अब आगे पाँचवे गुणस्थान पर एक सोपान आगे चढकर इन जीवों की हिंसादि न करने की प्रवृत्तिरूप आचारधर्म प्रारंभ करता है । हिंसा एक पाप है । ऐसे १८ मुख्य पाप हैं। उन पापों को न करने की प्रतिज्ञा करके पाँचवे गुणस्थानकवर्ती साधक जीव व्रतधारि पच्चक्खाणवाले बनते हैं। इस क्रम प्राप्त प्रक्रिया में १८ पापस्थानकों को भी संक्षेप में समझ लें । देश विरतिधर श्रावक जीवन ५८७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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