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है । यदि पूरी किये बिना ही जीव मर जाए तो अपर्याप्त कहलाता है । मनुष्य का जीव
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माता के गर्भ में आकर सर्व प्रथम औदारिक पुद्गल परमाणुओं का आहार ग्रहण करता है । उसके पश्चात् उस आहार के ग्रहण किये हुए पुद्गल परमाणुओं में से शरीर की रचना करता है । उसके बाद तीसरे क्रम पर आकर इन्द्रियाँ निर्माण करता है । पूर्व के अपने किये हुए तथाप्रकार के कर्मोदय के कारण कम-ज्यादा इन्द्रियाँ बनाता है। चौथे क्रम पर श्वासोच्छ्वास लेने–छोडने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है । पाँचवे क्रम पर भाषाकीय व्यवहार शुरु होता है। और अन्त में छट्ठे क्रम पर मन बनाता है जिससे सोचने-विचारने का काम शुरु करता है । यह सारा काम मात्र दो घडी के अन्तर्मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनिट के काल मात्र में पूरा हो जाता है । बाद के साडे नौं महीने का काल तो मात्र - विकास का है । विस्तार करते हुए विकसित होना है। शरीर के अंगोपांगों को विकसित करके पूर्णता प्राप्त करने का ही कालमात्र अवशिष्ट है। और सर्वांग संपूर्ण पूर्ण विकास हो जाने के पश्चात् काल की भी परिपक्वता के बाद जीव को जन्म लेकर धरती पर अवतरना है ।
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यह सब कार्य स्वयं जीव ही करता है। जीव न हो तो यह कोई कर ही नहीं सकता है । बिचारी गर्भधारण करनेवाली माता जो इस विषय में कुछ भी नहीं जानती है कि उदर में क्या हो रहा है ? ऐसी अज्ञात माता कुछ भी नहीं कर सकती है। कुछ भी नहीं बना सकती है। आधुनिक विज्ञान का कहना है कि गर्भ में प्रथम से ही जीव नहीं रहता है । यह संपूर्ण मूर्खता है । विज्ञान की अज्ञानता है । जीव प्रथम क्षण से ही मौजूद है । जीव के आने पर ही गर्भधारणा होती है। अन्यथा संभव ही नहीं है । अतः जीव के अस्तित्व की स्वीकृति पर ही सारा आधार है । इन ६ पर्याप्तियों को जीव गर्भ में प्रवेश के प्रथम अंतर्मुहूर्त में ही बना लेता है और इन्हीं के आधार पर जीता है ।
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१० प्राण
पणिदिअ-त्ति बलूसा - साउ-दस - पाण- चउ-छ- सग-अट्ठ । इग-दु-ति- चउरिंदीणं असन्नि - सन्नीण - नव-दस - य ॥ ७ ॥
“प्राणान्” धारयतीति “प्राणी” जो प्राणों को धारण करते हैं वे प्राणी कहलाते हैं । अतः प्राणी एक ऐसा सजीवन है जो प्राणों को धारण करते हैं। ऐसे १० प्राण है । कम-ज्यादा प्रमाण में जीवों को होते हैं । ५ इन्द्रियों में से कोई भी १, २ या कम, ज्यादा ३, ४ या पाँचों इन्द्रियाँ भी होती है । शरीर होना अनिवार्य है । उसके पश्चात् भाषा के लिए वचन योग भी होता है । मन भी विचारार्थ एक प्राण है और श्वासोच्छ्वास तो जीने के लिए
देश विरतिधर श्रावक जीवन
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