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तीर्थंकर कथित धर्म मार्ग पर चलाने का कर्तव्य गुरु को निभाना वाहिये । साधक को मुझे मानने रूप मेरे में ही श्रद्धा रखो, ऐसा न कहते हुए सर्वज्ञ वीतरागी-अरिहंत भगवान में एवं उनके वचन में श्रद्धा रखो, ऐसा सिखाना चाहिए । यही गुरु का कर्तव्य है ।
वास्तव में ऐसा शुद्ध सम्यग्दर्शन सभी जीवों को प्राप्त कराना, यह गुरु का मुख्य कर्तव्य है । इस नीति का पालन करने से संप्रदायवाद का विष कम होगा और शाश्वत धर्म का झण्डा सदा ही लहराता रहेगा। इस तरह व्यक्तिगत समकित बेचने की दुकानदारी चलाना महापाप है। सम्राट श्रेणिक की श्रद्धा की कसौटी
मगध देश की राजधानी राजगृही नगरी के अधिपति सम्राट श्रेणिक महाराजा चरम तीर्थपति श्रमण परमात्मा श्री भगवान महावीरस्वामी के परम उपासक बने थे । सर्वज्ञ प्रभु से समस्त तत्त्वों का यथार्थ सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके सच्चे परम श्रद्धाल बने थे। उनका सम्यग्दर्शन विशुद्ध कक्षा का था । यद्यपि वे अविरति के उदय वाले थे, अतः उनके जीवन में सामायिक-व्रत-पच्चक्खाण आदि विरति धर्म नहीं आ सका था। चारित्र मोहनीय का प्रबल उदय था जिससे व्रत-विरति पच्चक्खाण का आचरण वे नहीं कर पाये। लेकिन दर्शन मोहनीय कर्म एवं अनन्तानुबन्धी सप्तक के सर्वथा क्षय होने से वे विशुद्ध सम्यग्दर्शन पा सके एवं उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए, अपने सम्यग् दर्शन को “क्षायिक" की कक्षा में पहुँचा सके । जीवनभर परमात्मा महावीर प्रभु की परम भक्ति करके मात्र सम्यग् श्रद्धा के बल पर उन्होंने सर्वोच्च कक्षा का तीर्थंकर नामकर्म भी उपार्जन किया, जिसके फलस्वरूप वे आगामी चौबीसी में पद्मनाभस्वामी नामक प्रथम तीर्थंकर बनकर मोक्ष सिधारेंगे।
देवलोक के देवताओं ने सम्राट श्रेणिक के सम्यग्दर्शन की कई बार विचित्र ढंग से परीक्षा भी की । गर्भवती साध्वी एवं मच्छीमार साधु का रूप लेकर देवताओं ने उनकी सचोट श्रद्धा को डिगाने का प्रयत्न भी किया; परन्तु श्रेणिक जैसे परम श्रद्धालु राजा अपनी श्रद्धा में अचल-अटल रहे । कठिन कसौटियों में से पसार हुए, वे धन्य है । ऐसे थे शुद्ध सम्यक्त्वी श्रेणिक महाराजा।
महासती परम श्रद्धालु सुलषा श्राविका के जीवन में प्रथम संतानोत्पत्ति का अभाव होते हुए भी उन्होंने कभी भी अपनी सम्यग् श्रद्धा को विचलित नहीं किया। उन्हों ने कभी रागी-द्वेषी-देवी-देवताओं की मानता, आखड़ी मानने का पाप नहीं किया। उन्होंने मिथ्या
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
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