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________________ भ्रम मूलक व्याख्या और अर्थ- संसार में ऐसे कई मिथ्यामति जीव हैं जो अपने बुद्धिबल एवं कुतर्क तथा कुयुक्तियों के आधार पर संसार के मूलभूत जो सही तत्त्वादि पदार्थ हैं उनको अपने ढंग सें, अपनी पद्धति की व्याख्या से समझाते हैं। तत्त्वों के नाम तो वे ही रखेंगे। जीव, अजीव, पुण्य-पाप-मोक्ष आदि नाम तो वही होंगे परन्तु अर्थ एवं व्याख्या अपने ढंग की मनमानी तरीके से करेंगे। जैसे आत्मा के बारे में कई कहते हैं- 'देहात्मा' अर्थात् वे देह और आत्मा को एक ही मानते हैं । उनके अनुसार देह ही आत्मा है । वे यह मानने को कदापि तैयार नहीं होते हैं कि आत्मा शरीर से अलग है । आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है । इसी प्रकार संसार में कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं, जो इन्द्रियों को ही आत्मा मानते हैं। कोई-कोई ऐसे भी हैं जो मन को ही आत्मा मानते हैं। कोई प्राण को आत्मा मानते हैं। कोई ब्रह्म को आत्मा मानते हैं। वे अन्य जीव में आत्मा नहीं मानते हैं। .. संसार में कोई कहते हैं कि एक ही आत्मा है। दूसरे कहते हैं कि आत्मा नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। कुछ आत्मा मानकर, उसे क्षणिक विनाशी मानते हैं, तो कोई उसे कूटस्थ-नित्य, एकान्त–नित्य या एकान्त-अनित्य ही मानते हैं। लेकिन "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त” यथार्थ स्वरूप में नहीं मानते हैं। कोई आत्मा को भी जड़ रूप में मानते हैं, तो कोई आत्मा को भी पंचमहाभूतजन्य मानते हैं- पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, आकाश आदि पाँच महाभूतों के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई आत्मा को मानते हैं, तो कोई Chemical Compound याने रासायनिक प्रक्रिया से उत्पन्न हुई आत्मा मानते हैं, तो कोई आत्मा को अनादि, अनन्त, असंख्य प्रदेशी नहीं मानते हैं; तो कोई आत्मा को ज्ञान-दर्शनादि गुणवान नहीं मानते हैं, तो कोई ऐसे भी हैं जो आत्मा को शून्य रूप मानते हैं । कुछ कहते हैं, आत्मा है ही नहीं; तो कोई आत्मा शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ लगाते हैं। इस तरह यह तो केवल आत्मा के बारे में विवाद या मतमतान्तर की बात हुई। एक आत्मतत्त्व के बारे में लोगों की सैकड़ों तरह की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं । ठीक इसी तरह आत्मा, परमात्मा, जीव, अजीव, पुण्य-पाप, सुख-दुःख, धर्म-कर्म, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, इहलोक-अलोक, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, आश्रव-संवर, बंध-मोक्षादि अनेक तत्त्वों के विषय में जो यथार्थ वास्तविक स्वरूप एवं अर्थ है, वैसा न मानते हुए, न कहते हए, वे अपनी मन घडन्त व्याख्या एवं अर्थ करके जगत के भोले-भाले जीवों को माछीमार की तरह अपनी जाल में फंसाते हैं। अपने पक्ष में या मत में खींचते हैं। यह सारी स्थिति मिथ्यादशारूप-मिथ्यात्व की प्रवृत्ति है। इसमें कई कोरी स्लेट या कोरे सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द ५३१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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