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________________ है; अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद अर्धपुगलपरावर्तकाल ही संसार शेष रहता है । जब तक जीव ने सम्यक्त्व नहीं पाया था, तब तक जीव ने अनन्त पुद्गल परावर्तकाल का संसार बिताया था । ऐसे अनन्त के सामने अब मात्र अर्धपुद्गल परावर्तकाल ही शेष बचा है । यह कितने आनन्द की बात है ! एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी दोनों मिलकर एक कालचक्र बनता है, और अनन्त कालचक्र का एक पुद्गल परावर्तकाल बनता है । ऐसे अनन्त पुद्गलपरावर्तकाल का संसार जीव ने सम्यक्त्व के अभाव में, मिथ्यादशा में बिताया है । अब सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद वह काल अनन्त का न रहकर सिर्फ अर्धपुद्गलपरावर्त ही शेष रहा है I इसे ऐसे समझिये कि मानो एक लाख योजन ऊंचे सुमेरु का मात्र कुछ कंकड़ शेष रहता है । या अगाध महासमुद्र सूखकर एक लघु खड्डा पानी रह जाता है । यहाँ कुछ कंकड़ और एक लघु खड्डा पानी सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद शेष रहा, अल्पकाल को समझाने के लिए रूपक अर्थ में है, दृष्टान्त रूप है । मानो कोई मुसाफिर महासमुद्र को तैरकर यात्रा करता हो, वह वर्षों तक तैरते - तैरते थर्ककर क्लांत हो चुका हो, और उसे किनारा सामने दिखाई देते ही, शेष रहे अल्प अन्तर को देखकर वह जितना प्रसन्न होता है, उसी तरह संसार यात्रा का मुसाफिर, मिथ्यादृष्टि भव्य जीव, मिथ्यात्व के महासमुद्र में अनन्त पुद्गल परावर्तकाल तक परिभ्रमण करके, थककर क्लांत होने पर तथाभव्यत्व के परिपक्व से यथा- प्रवृतिकरण आदि तीनों करण करके ग्रन्थिभेद से सम्यक्त्व प्राप्त करके, जब मोक्षमार्ग पर आकर सामने देखता है, तब समुद्र यात्री को किनारा दिखाई देने के समान, सम्यक्त्वी जीव को मोक्ष की क्षितिज सामने दिखाई देती है । इस अनन्त दुःखं रूप संसार से मुक्त होकर अवश्य ही मैं मोक्ष में जाऊँगा । इस आभास मात्र से उसे कितना आनन्द प्राप्त होता होगा ? यह अकल्पनीय होकर अवर्णनीय है । इस तरह अनन्त पुद्गलपरावर्तकाल की तुलना में शेष बचा हुआ मात्र अर्ध पुद्गल परावर्तकाल का अन्तिम संसार सम्यक्त्वी जीव के लिए बहुत अल्पकाल अवधि है । I अतः वह अनुपम आनन्द एवं सुखानुभूति करता है । भले ही अर्धपुद्गलपरावर्त काल में असंख्य भव भी हो, फिर भी सम्यक्त्वी जीव को अनुपम आनन्द है क्योंकि अनन्त के सामने अब काल या भव की यह संख्या मात्र संख्यात् या असंख्यात् रूप में ही अवशिष्ट रही है । यह बड़ी खुशी की बात है क्योंकि भूतकाल में बीते हुए अनन्त काल के सामने सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द ५२१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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