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भ. महावीर इसके उत्तर में फरमाते हैं कि हे गौतम ! वे गए ज्यादा नहीं है परन्तु अभी जाना बहुत अवशिष्ट है ।
फिर गौतम पूछते हैं कि... हे भन्ते । ज्यादा अर्थात् कितना ? कितने ज्यादा गए ? और कितना ज्यादा जाना अभी अवशिष्ट है ?
भ. महावीर प्रभु ज्यादा का अर्थ स्पष्ट करते हुए फरमाते हैं कि — हे गौतम! गए ज्यादा नहीं परन्तु अभी जाना बहुत अवशिष्ट है । अर्थात् जितना भाग गए हैं उसका अनन्तगुना भाग और जाना अवशिष्ट है । और जितना अनन्तगुना भाग जाना अवशिष्ट है उसका सिर्फ अनन्तवां भाग ही ये देवता गए हैं ।
सोचिए .. इतनी तीव्रतम द्रुत - शीघ्र गति से और ऐसे शक्तिशाली देवताओं दौडने के बावजूद भी सिर्फ अनन्तवां भाग ही वे जा सकें । अभी भी अनन्तगुना भाग जाना और अवशिष्ट है। तो फिर इसका अन्त आना तो संभव ही नहीं है ।
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ख्याल रहे कि अलोक में गतिसहायक धर्मास्तिकाय आदि कोई द्रव्य नहीं है । देवता जा भी नहीं सकते हैं । फिर भी रूपक दृष्टान्त द्वारा सिर्फ समझ में आ जाय कि .. अलोक कितना अनन्त है, असीम, अमाप है। इससे अनन्तता का ख्याल आ जाय इसके लिए यह उदाहरण सहायक बनता है । यह तिर्छा लोक ऊर्ध्व-अधो दिशा में ऊपर ९०० योजन है । ये ९०० योजन मेरुपर्वत की समतला भूमि से मापे जाते हैं । इसी तरह इसी समतला भूमि से अधो नीचे की दिशा में भी ९०० योजन है । इस तरह ऊर्ध्व-अधोदिशा में दोनों मिलाकर सिर्फ ९०० + ९०० १८०० योजन प्रमाण ही है । असंख्य योजन ऊँचे-नीचे-लम्बे-चौडे इस संपूर्ण १४ राज लोक के विशाल ब्रह्माण्ड में.. सिर्फ १५०० योजन मात्र यह तिर्छा लोकसमुद्र के सामने एक छोटे खड्डे के जैसा दिखता है । लगता है । ऊपर-नीचे के १८०० योजन जरूर सीमित है । परन्तु तिर्छालोक की कुल चौडाई का विस्तार १ राज प्रमाण है ।
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७ वें राजलोक के ऊपर और ८ वें राजलोक के नीचे यह तिर्छा लोक है । अतः सर्वथा ७ और ८ वें के बीचो बीच भी नहीं कह सकते हैं। क्योंकि ७ राजलोक बीतने के बाद पूरे होने के पश्चात् ऊपर तिर्छा लोक के द्वीप - समुद्रों की स्थिति है। हाँ, यह बात जरूर है कि.... ९०० योजन नीचे के हैं वे जरूर ७ वें राजलोक की सीमा के अन्दर जाते हैं । और ९०० योजन ऊपर के ऊपरी ८ वें राज में गिने जाते हैं । इस तरह १८०० योजन वाले इस तिर्छालोक का आधा हिस्सा ७ वें राजलोक में ऊपरी आधा हिस्सा ८ वें राजलोक में है । इस तरह ऊर्ध्व-अधो- १८०० योजन सीमित एवं चौडाई के विस्तार में पूरा १ राजलोक परिमित है । १ राजलोक भी असंख्य योजन बराबर होता है । इन असंख्य
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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