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अलोक की अनन्तता
भगवती सूत्र के ११ वें शतक के १० वें उद्देश के ४२१ वें सूत्र में गौतमस्वामी ने महावीर प्रभु को प्रश्न पूछा कि- हे भन्ते ! अलोक कितना बडा विशाल है ? (इसके उत्तर में समझ में आ सके इसके लिए काल्पनिक दृष्टान्त देकर प्रभु समझा रहे हैं)- हे गौतम ! ४५ लाख योजन के विस्तार वाला जो अढाई द्वीप है उसके चारों तरफ पुष्करार्ध द्वीप में ही
जो मानुषोत्तर पर्वत है - उस पर्वत पर .... महा शक्तिशाली महान ऋद्धिवाले ऐसे १० देवता आठों दिशा-विदिशा में खडे रह जाय । पर्वतमाला के नीचे आठ दिक्कुमारिकाएं-८ बलिपिण्ड लेकर खडी रह जाय । ये आठ दिक्कुमारिकाएं आठों दिशा-विदिशाओं में बलिपिण्डों को ऊपर फेंके... इतने में ही १० में से १ देवता.. अत्यन्त तीव्र गति से आँख की पलक मात्र समय में ही दौडकर ... उन आठों बलिपिण्डों को नीचे गिरने न देते हुए.. नीचे गिरने से पहले ही पकड लें, उठा लें। अब विचार करिए–एक ही देवता ... आँख की पलक मात्र समय में कितना शीघ्र-तीव्र गति से दौडे कि वह आठों बलिपिण्डों को धरती पर गिरने के पहले तो उठा भी.ले ।... इस दृष्टान्त से गति की तीव्रता का ख्याल आ जाता है।
ऐसी तीव्रतर गति वाले दशों देवता... इसी गति से लोक में से अलोक का अन्त पाने के लिए... दशों दिशाओं में ... भागना शुरू करें, और इसी गति से निरंतर ... अविरत्.... अखण्ड रूप से दौडते ही जाय दौडते ही जाय । इस बीच लाख-लाख वर्ष के आयुष्यवाली... सात पीढ़ीयां बीत जाय । अर्थात् ७ लाख वर्ष से भी अधिक काल बीत जाय तब तक ... भी ये देवता ... सतत अखण्ड गति से दौडते ही जाय..दौडते ही रहे.... इस बीच गौतमस्वामी प्रश्न पूछते हैं-तेसिणं देवाणं किं गए बहुए? अगए बहुए? हे भगवन् । वे देवता गए ज्यादा कि जाना अवशिष्ट ज्यादा रहा? इन दसों देवताओं ने कितना पंथ काटा? क्या अलोक का किनारा-अन्त पाया?
जगत् का स्वरूप
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