SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह तिर्छा लोक असंख्य द्वीप - समुद्रों का क्षेत्र है । थाली के आकार का पूर्ण गोलाकार बीच में एक द्वीप है । और बाद में उसके चारों तरफ समुद्र है । इसी तरह आगे पुनः द्वीप, फिर समुद्र - फिर पुनः द्वीप - फिर समुद्र इस तरह एक द्वीप एक समुद्र इस क्रम से चलते चलते असंख्य द्वीप-असंख्य समुद्रों की स्थिति वाला यह तिर्छा लोक है । द्वीप उसे ही कहते हैं, जिसके चारों तरफ समुद्र ही समुद्र हो । ये द्वीप ही पृथ्वी है । इनके नामकरण के बारे में तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकार कहते हैं 1 जम्बू द्वीप-लवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ।। ३-७॥ इन असंख्य द्वीपसमुद्रों में पहला जंबूद्वीप है । उसके बाद लवणसमुद्र है । फिर आदि शब्द से आगे के द्वीप - समुद्र अनेक बताए गए हैं। जो संख्या में असंख्य हैं । इन असंख्यों में नामकरण की व्यवस्था बताते हुए कहते हैं कि - जितने भी जगत् में शुभ श्रेष्ठ नाम हैं वे सभी इन द्वीप - समुद्रों के नाम रहते हैं या ऐसे कहिए कि ... जगत में जितने भी शुभ नाम हैं उन सभी नामों वाले द्वीप - समुद्र हैं। इनमें कुछ नाम इस प्रकार है - द्वीपों के नाम मुद्र २. लवण समुद्र ४. कालोदधि समुद्र ६. पुष्करोद समुद्र . १. जंबूद्वीप ३. धातकी खंड ५. पुष्कर द्वीप . ७. वरूणवर द्वीप ९. क्षीरवर द्वीप ११. घृतवर द्वीप १३. इक्षुवर द्वीप १५. नंदीश्वर द्वीप १७. अरुणवर द्वीप प्रमाण (१ लाख योजन) (४ लाख योजन) (१६ लाख योजन) (६४ लाख योजन) . (२५६ लाख योजन) (१०२४ लाख योजन) . (४०९६ लाख योजन) (१६३८४ लाख योजन) (४५५३६ लाख योजन) ३० . (१२८ लाख योजन) (५१२ लाख योजन) ८. वरुणवर समुद्र . १०. क्षीरोद समुद्र. १२. घृतोद समुद्र १४. इक्षुवरोद समुद्र १६. नंदीश्वर समुद्र . (२०४८ लाख योजन) (८१९२ लाख योजन) (२२७६८ लाख योजन) १८. अरुणवर समुद्र (९१०७२ लाख योजन) प्रमाण (२ लाख योजन) (८ लाख योजन) (३२ लाख योजन) . इस तरह यहाँ ९ द्वीप के और ९ समुद्रों के नाम दिए गए हैं। और आगे चलते ही जाएं तो इस तरह द्वीप और इसके बाद समुद्र आते ही रहेंगे... ये असंख्य की संख्या में आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy