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ये पाँच अनुत्तर विमान भी कल्पातीत देवलोक में गिने जाते हैं। बस, देवलोक क्षेत्र में अन्तिम देवलोक सर्वार्थसिद्ध आ गया। इसके बाद ऊपर देवलोक की स्थिति नहीं है।
ऊर्ध्व लोक क्षेत्र में ही देवलोक की समाप्ति के बाद सिद्धशिला आती है। इस सिद्धशिला के ऊपर अनन्त सिद्धों का वास है। यहाँ पर ही अलोक की सीमा है । लोक की समाप्ति और अलोक की शुरुआत है। सभी सिद्धात्मा जो सर्वथा अशरीरी हैं वे सभी लोकान्त को स्पर्श करके सदा स्थिर रहे हुए हैं । अलोक में धर्मास्तिकाय आदि न होने से सिद्धात्मा का गमन ऊपर नहीं होता है । अतः सिद्धों की स्थिति भी लोक क्षेत्र में ही है। लोकान्त-लोक-के अन्तिम भाग में है। इसे लोकाग्र शब्द से भी कहा गया है । लोक का अग्रिम भाग लोकाग्र कहलाता है। वहाँ अनन्त सिद्धों का वास है । इस तरह यह ऊर्ध्वलोक का स्वरूप हुआ। तिmलोक का भौगोलिक स्वरूप
१४ राजलोक परिमित इस लोक क्षेत्र में ऊर्ध्वलोक ७ राज कुछ न्यून प्रमाण ऊपर है, और अधोलोक ७ राज कुछ अधिक नीचे है । इन दोनों
के बीच में तिर्छालोक है । जैसे हमारे ९०० योजन कि तिळ लोक ९०० योजन १८०० योजन सिर से पैर तक के शरीर में नाभी भाग
है वह केन्द्र भाग है । ठीक वैसे ही इस लोक में तिर्छा लोक नाभि की तरह केन्द्र भाग में है। यद्यपि केन्द्रबिन्दु थोडा नीचे जरूर है। क्योंकि
ऊर्ध्वलोक से अधोलोक थोड़ा सा बडा है । अतः ऐसे पुरुषाकार लोक क्षेत्र के बीचोबीच तिर्छालोक आया हुआ है । इसके मध्यलोक, मनुष्यलोक और तिmलोक तीनों नाम प्रसिद्ध हैं।
- ऊर्ध्व-अधो दोनों लोको के बीचो-बीच मध्यवर्ती होने के कारण मध्यलोक नाम सार्थक है । इसके केन्द्रवर्ती अढाई द्वीप में मनुष्यों की बसति होने से प्राधान्यता की दृष्टि से मनुष्य लोक कहना भी सार्थक हैं । तथा असंख्य द्वीप समुद्रों के इस लोक में तिर्यंचों की वसति काफी ज्यादा है। अतः तिर्यक् लोक या तिज़लोक भी सार्थक नाम है।
जगत् का स्वरूप