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________________ जैसा आकार इस वैराट लोक का है। अतः पुरुषाकृति की सादृश्यता के कारण इसे लोकपुरुष भी कहते हैं। अथवा सुप्रतिष्ठक संस्थान या त्रिशराव संपुटाकार भी बताया है । दोनों नाम समानार्थक हैं । शराव शब्द घी के दीपक (दीपावली में जिस मिट्टी के छोटे से कुण्डे में किये जाते हैं) को कहते हैं ।) ऐसे ३ शरावों की बनी आकृति जैसा यह लोक है । अर्थात् प्रथम कुण्डे को उल्टा रखें, उसी पर दूसरा कुण्डा सीधा रखें और फिर दूसरे पर तीसरे कुण्डे को फिर उल्टा रखने पर जो आकार बनता है ठीक वैसी ही समान आकृति इस लोक की बनती है । अतः इसे त्रिशराव संपुटाकार कहते हैं । अथवा मक्खन बनाने के लिए छाछ का मन्थन करते स्त्री की आकृति भी इस प्रकार की बन जाती है। योगशास्त्र में कहा है कि वेत्रासन समोऽधस्तान् मध्यतो झल्लरीनिशः। अग्रे मुरजसंकाशो लोकः स्यादेवमाकृतिः ।। वेत्रासन के समान अधो भाग, झल्लर के समान मध्यभाग और मृदंग समान ऊपरी ऊर्ध्वभाग इस तरह की आकृतिवाला यह समस्त १४ रोजलोक है। ऐसा विराट एवं विशाल यह लोक संस्थान है । यह अनादि-अनन्त-शाश्वत है । इसका प्रमाण १४ राज (रज्जु) प्रमाण होने से इसे १४ राजलोक कहते हैं। ३ लोक की व्यवस्था इस समस्त १४ राजलोक प्रमाण विराट ब्रह्माण्ड में ३ विभाग हैं। उन्हें ३ लोक कहते हैं । इनको अलग अलग प्रकार के नामों की संज्ञा दी गई है। जावंति चेइआई-उड्डे अ अहे अतिरिअलोए अ। सव्वाइं ताई वंदे इह संतो तत्थ संताई॥ १. ऊर्ध्व लोक-ऊपर का लोक, २. तिर्छा लोक-तिर्यक् लोक बीच के लोक को कहा है । और ३. तीसरे के नीचे के लोक को अधोलोक कहा है । इनका नामकरण दूसरी रीति से भी है आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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