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पदार्थ जैसे हैं वैसा ही शुद्ध स्वरूप मानना आवश्यक है । यह समस्त जगत् भी ठीक इन अनुत्पन्न - शाश्वत - नित्य पदार्थों के समूहात्मक स्वरूप को ही कहा गया है । जगत् कोई स्वतंत्र भिन्न वस्तु नहीं है । जगत् नाम की किसी वस्तु को हम दिखा नहीं सकते हैं । अतः यह जगत् अन्य कुछ भी नहीं, लेकिन पाँचों अनुत्पन्न - नित्य - अविनाशी द्रव्यों का समूहात्मक स्वरूप है । इस समूहात्मक स्वरूप को 'जगत्' संज्ञा दी गई है | अतः जगत् उत्पन्नशील नहीं है । उत्पन्न होनेवाला भी नहीं है तो फिर उसे उत्पन्न करनेवाला भी नही । अतः जगत् को उत्पन्नशील एवं उत्पन्न करनेवाला - बनानेवाला इन दोनों बातों को मानना सबसे बडी अज्ञानता सिद्ध होगी ।
समस्त ब्रह्मांड का स्वरूप
अनन्त अलोक के बीच में लोक है । इसके माप प्रमाण का विचार इस प्रकार समझ में आ सकता है । अलोक अनन्तगुना है, इस अनन्तगुने अलोक के सामने लोक क्षेत्र तो उसके अनन्तवें भाग जीतना ही है। और अनन्तवें भाग जितने छोटे इस लोक से अलोक
अनन्तगुना बडा है । अलोक में सिर्फ आकाश ही आकाश है। आकाश से अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य का अस्तित्व वहाँ नहीं है । द्रव्य तो क्या एक परमाणु का भी अस्तित्व अलोक में नहीं है । अतः जो भी कुछ है वह सब लोक क्षेत्र में ही हैं । इसी लोक को संपूर्ण ब्रह्माण्ड कहते हैं | The whole cosmos कहते हैं । इस में अण्ड शब्द से अण्डे के आकार की आकृति और फिर उस में से बना आदि ऐसी कोई बात ही नहीं है । वैसे जैन दर्शन शास्त्र में ब्रह्माण्ड शब्द प्रयोग ही नहीं हुआ है । सिर्फ लोक शब्द का ही प्रयोग है !
ब्रह्माण्ड शब्द वैदिक परंपरावाले हिन्दुदर्शन का है ।
जगत् का स्वरूप
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