________________
नित्यता-शाश्वतता समझाकर सर्वज्ञ परमात्मा ने इसी का विशिष्ट महत्व समझाया है। अतः जैन विज्ञान भौतिक विज्ञान न रहकर आध्यात्मिक विज्ञान कहलाया। यही इसकी विशेषता–श्रेष्ठता रही है। इसी कारण जगत् को मात्र भौतिक सुख-साधनों की तरफ ही जैन विज्ञान ने नहीं मोडा . . . लेकिन भौतिक-पौद्गलिक सुख-साधनों की विनाशिता-अनित्यता-क्षणिकता-नाशवंतता समझाकर उसे गौण करके आध्यात्मिक विज्ञान को प्राधान्यता दी । क्योंकि चेतनात्मा द्रव्य नित्य शाश्वत है, अविनाशी है। इसी का ज्ञानानन्द परमानन्द है । शाश्वत सुख है । पौगलिक-भूत भौतिक सुख-साधनों में सुख की मात्रा १% भी मुश्किल से होगी जबकी दुःख की मात्रा ९९% दिखाई देती है। ठीक इससे विपरीत आध्यात्मिक विज्ञान में जैन दर्शन ने आत्मिक सुख-आनन्द की मात्रा १००% बताई है। और भूत-भौतिक पौद्गलिक सुख-साधनों में दुःख ही दुःख बताया है। सिर्फ क्षणिक सुख और दीर्घकालीन दुःख है। क्योंकि वे सभी पौद्गलिक-भौतिक सुख-साधन अनित्य-नाशवन्त-क्षणिक हैं। अतः उससे शाश्वत सुख की प्राप्ति की कल्पना भी करना मूर्खता-अज्ञानता है । अतः मानव को इन दोनों विज्ञानों का, इन दोनों पदार्थों का भेद समझकर भी सच्ची दिशा में ही प्रयाण करना चाहिए । यही श्रेयस्कर है।
जीवास्तिकाय का स्वरूप
वर्तमान आधुनिक विज्ञान ने जिसका सर्वथा स्पर्श भी नहीं किया है वह है-जीवात्मा-चेतन द्रव्य । अलोक में जिसका सर्वथा अस्तित्व भी नहीं है और लोक क्षेत्र में जिसका सर्वत्र सर्वक्षेत्र में अस्तित्व है ऐसा चेतन जीवात्मा एक अद्भुत विशिष्ट द्रव्य है । समस्त लोकगत जीव द्रव्य की एक जाति गिननेपर जीवास्तिकाय एक समझा जाता है। जीव द्रव्य भी असंख्य प्रदेशात्मक हैं। अतः इसे भी प्रदेश समूहात्मक पिण्ड-जीवास्तिकाय कहते हैं । अस्तिकाय शब्द का प्रयोग जीव शब्द के साथ इसीलिए किया गया है, क्योंकि वह प्रदेश समूहात्मक पिण्ड-द्रव्य है । ऐसे जीवद्रव्य की संख्या अनन्त है। समग्र लोक में अनन्तानन्त जीव है, अतः यह लोक सर्वत्र-सर्व क्षेत्र में अनन्तानन्त जीवों से व्याप्त है । यह सप्रदेशी द्रव्य है । जिस तरह वस्त्र में धागे बुने गए हैं, एक धागा दूसरे धागे को जहाँ क्रॉस करता है वह Cross Point कहलाता है । ठीक वैसी ही जीवगत प्रदेशों की रचना संभव है। इस तरह जीवद्रव्य सप्रदेशी द्रव्य है। ये प्रदेश असंख्यात की संख्या में हैं। अतः जीवद्रव्य असंख्य प्रदेशी द्रव्य है। प्रदेश समूहात्मक रूप अस्तित्व होने से इसे जीवास्तिकाय द्रव्य कहते हैं।
जगत् का स्वरूप