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रस
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खट्टा-मीठा–तीखा-खारा - तूरा इन पाँच रसों से युक्त पुद्गल द्रव्य होता है । ये रस पौद्गलिक द्रव्य में निश्चित रूप से होते ही हैं ।
स्पर्श
चिकना - खुरदरा, ठन्डा - गरम, इस प्रकार के ८ स्पर्श हैं । प्रत्येक पौद्गलिक द्रव्य इन स्पर्शों से युक्त ही होता है । ये स्पर्श प्रतिद्वन्दी हैं । अतः सबका एक साथ होना जरूरी नहीं है। अलग अलग रहते हैं ।
युक्त
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जो भी पौगलिक द्रव्य है वह निश्चित रूप से वर्ण-गंध-रस - स्पर्शादि ही है और जो वर्णादि युक्त होता है वह पौद्गलिक द्रव्य ही कहलाता है । स्कंध - देश-प्रदेश और परमाणु पुद्गल की चारों अवस्थाएं वर्णादि युक्त हमेशा ही रहती है । एक परमाणु में भी वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श गुण रहता ही है । यह पुद्गल पदार्थ अपने वर्णादि गुणों के कारण ही चेतन - आत्मा से सर्वथा भिन्न एवं विपरीत द्रव्य है । चेतन - आत्मा ज्ञानादि गुणवान् है । उसमें वर्णादि सर्वथा नहीं है । और पुद्गल में ज्ञानादि सर्वथा नहीं होने से दोनों एक दूसरे के सर्वथा विपरीत एवं भिन्न हैं ।
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जैन विज्ञान की श्रेष्ठता
वर्तमान विज्ञान के क्षेत्र में जितने भी १११ या इससे भी कम ज्यादा तत्त्व elements जोमाने गए हैं वे सभी जैन धर्म के एकमात्र पुद्गल द्रव्य के ही प्रकार हैं । जैन विज्ञान ने उन सबका समावेश एक मात्र पुद्गल द्रव्य के अन्तर्गत ही कर दिया है । ये सब पौगलिक द्रव्य हैं। भौतिक द्रव्य हैं । अतः वर्तमान विज्ञान ( science) मात्र भौतिक विज्ञान है । पौगलिक विज्ञान है । उसमें भी अजीव तत्त्व के सभी प्रकार धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय आदि को तो विज्ञान अभी तक भी समझ ही नहीं पाया है। अतः विज्ञान की अपूर्णता प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है । दूसरी ओर जैन तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में अजीव और जीव दोनों पदार्थों के स्वरूप को अनन्त ज्ञानियों ने पूर्ण रूप से बताया है। दोनों के चरम सत्य का स्वरूप भी पूर्ण बता दिया है । अतः सर्वज्ञोपदिष्ट जैन विज्ञान ही अपने आप में पूर्ण - संपूर्ण विज्ञान है । जैन विज्ञान मात्र भौतिक विज्ञान ही नहीं है अपितु यह श्रेष्ठ आध्यात्मिक विज्ञान है । भौतिक पौगलिक विज्ञान का स्वरूप बताकर भी उसकी विनाशिता-अनित्यता समझाकर उसे गौण कर दिया है जब कि चेतन - जीवात्मा की अविनाशिता
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होता
आध्यात्मिक विकास यात्रा