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है-भरा हुआ है । समस्त लोकाकाश का एक कोना भी खाली नहीं है जहाँ जीव पुद्गलादि द्रव्यों का अस्तित्व न हो । जीव एवं पुद्गल परमाणु अनन्तानन्त की संख्या में भरे पड़े हैं। इसी से लोक व्याप्त है। सबको अवकाश जगह देने का विशाल गुण इस आकाश का है। सबका अपने में समावेश करनेवाला यह आकाश क्षेत्र है । और अन्य आकाश के आश्रित रहनेवाले सभी द्रव्य क्षेत्री हैं। इन सब द्रव्यों का रहना भी इसी लोकाकाश में है तथा गति भी इसी में होती है । इस तरह यह आकाश भी अनादि द्रव्य है । इसकी-आदि या शुरुआत नहीं है। अतः अनुत्पन्न है । किसी के भी द्वारा उत्पन्न नहीं किया गया है। इसी तरह अनन्त है । जिसका कभी अन्त नहीं होगा वैसा अनन्त द्रव्य है । क्षेत्र सीमा भी नहीं है इसलिए भी अनन्त सीमातीत-असीम है । नाश-विनाश भी संभव नहीं है । अतः अविनाशी-अपर्यवसित द्रव्य है । यहीं इसका विशाल विराट स्वरूप है। ४) पुद्गलास्तिकाय द्रव्य
'पुद्गल' जैन वाङ्मय में ही प्रयुक्त यह एक विशिष्ट शब्द है । इस शब्द का प्रयोग अन्यत्र कहीं भी नहीं है। पूरण एवं गलन स्वभाववाले द्रव्य को पुद्गल द्रव्य कहते हैं। पूरण-गलन का अर्थ है बनना-एवं बिगडना । अतः पुद्गल में बनने-बिगडने रूप परिवर्तन की प्रक्रिया रहती है । परमाणुओं के संयोग से एक स्कंध-पिण्ड बनता है । उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं। इसके लिए अंग्रेजी में matter शब्द प्रयुक्त है। यह अजीव-जड द्रव्य है । अचेतन द्रव्य है । अतः ज्ञान दर्शन एवं सुख-दुःख की संवेदनारहित द्रव्य है । यह भी प्रदेश समूहात्मक पिण्ड होने से पुद्गलास्तिकाय कहलाता है । पुद्गल के ४ प्रकार
पुद्गल
'स्कंध
देश
प्रदेश
परमाणु
१. स्कंध— Molecule संख्यात असंख्यात या अनन्त परमाणुओं के बने हुए पिण्ड को स्कंध कहते हैं। यह एक अखण्ड द्रव्य है। पूर्ण द्रव्य है। आकार प्रकार एवं माप-प्रमाण से यह एक छोटा-बडा भी होता है । उदा. के लिए- (१) लकडी अपने आप में जो पूर्ण-अखण्ड है वह असंख्य–परमाणुओं की बनी हुई है । इसे स्कंध कहते
जगत् का स्वरूप