SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बडा - विशाल है । और इसकी तुलना में लोकाकाश अलोकाकाश के अनन्तवें भाग का ही है - सीमित है । जबकी लोकाकाश से अलोकाकाश अनन्तगुना बडा है । लोकाकाश १४ राजलोक क्षेत्र सीमित प्रदेश ही है। यह लोकाकाश एक पुरुषाकृति सदृश लगता है । अतः इसे लोक पुरुष की संज्ञा भी दी गई है । जैसे एक पुरुष अपने दोनों हाथ कटिप्रदेश पर रखकर कोनी फैलाकर एवं संतुलन के लिए पैर फैलाकर खड़ा हो–ठीक वैसी ही लोक की आकृति है । इस सादृश्यता को लेकर 'लोकपुरूष' संज्ञा सार्थक दी गई है । इस लोक क्षेत्र का प्रमाण १४ रज्जु प्रमाण है । अतः १४ राजलोक कहा गया है । रज्जु योजनों के मापदण्ड से मापा जाता है । असंख्य योजन परिमित क्षेत्र को १ रज्जु कहते हैं । ऐसे १४ रज्जु प्रमाण क्षेत्र को १४ राजलोक कहते हैं । आकाश का गुण-अवगाहो आग आकाश द्रव्य भी गुणात्मक द्रव्य है । इसका गुण अवकाश-जगह प्रदान करने का | (A space is a space which gives us place). समस्त जीवों को एवं पुद्गल स्कंध–देश–प्रदेश एवं अनन्त परमाणुओं को जगह-अवकाश-आकाश ही देता है । अतः ये रहते हैं । भी इसी है सभी इसी धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय लोकाकाश में रहते हैं । एवं जीव पुद्गल भी इसी लोक परिमित क्षेत्र में ही रहते हैं । लोकाकाश सर्वत्र-सर्व प्रदेशों में इनसे व्याप्त है- भरा पडा I जबकी अलोकाकाश अनन्तगुना बडा - विशाल होते हुए भी .... वहाँ अन्य कोई भी द्रव्य रहता नहीं है । हाँ, आकाश वहाँ भी है । परन्तु आकाशेतर अन्य किसी भी द्रव्य की सत्ता वहाँ नहीं है । वह संपूर्ण रिक्त - खाली है । जबकी लोकाकाश जीव- पुद्गल - परमाणुओं एवं धर्मास्तिकाय–अधर्मास्तिकाय द्रव्यों से व्याप्त ८ आध्यात्मिक विकास यात्रा १ २ 3 ४ ५ ६ ७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy