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________________ को रोककर स्थिरता में आते हैं । उस समय स्थिती में यह अधर्मास्तिकाय द्रव्य सहायक बनता है । ठीक वैसे ही जीव- पुद्गल द्रव्यों के लिए स्थितिस्थापकता में सहायक बननेवाला यह अधर्मास्तिकाय द्रव्य नहीं होता तो किसी भी पदार्थ की कहीं भी स्थिति ही नहीं होती । सबकी सदा गति ही होती रहती । कोई भी कहीं रुकता ही नहीं । अतः यह द्रव्य स्वयं किसी को रोकता नहीं है । अवरोधक नहीं है । किसी की स्थितिस्थापकता स्वयं नहीं करता है । परंतु द्रव्यों की स्थिती स्थिरता में यह सहायक माध्यम है | Medium of rest यह द्रव्य है । अलोक में इस द्रव्य की सत्ता नहीं है । लोक क्षेत्र में ही है । अतः लोकाय भाग में स्थित अधर्मास्तिकाय द्रव्य सिद्धों की स्थिरता में भी सहायक बनता है । ३) आकाशास्तिकाय द्रव्य समस्त जगत के जीव- अजीवादि सभी द्रव्यों को अवगाहना जगह देने के स्वभाववाला द्रव्य आकाश द्रव्य है । यह भी अजीव द्रव्य है । यह भी अनन्त प्रदेशों के समूह का पिण्डरूप द्रव्य होने से इसे आकाशास्तिकाय कहते हैं । यह भी एक अखण्ड अनन्तप्रदेशी द्रव्य है । लोकगत आकाश और अलोकगत आकाश दोनों एक अखण्ड ही हैं । फिर भी लोक की विवक्षा से लोक क्षेत्र गत - व्याप्त आकाश को लोकाकाश एवं अलोक की विवक्षा के आधार पर लोकाकाश एवं अलोकाकाश संज्ञा दी गई है । इस तरह विवक्षा से आकाश को २ प्रकार का गिना गया है । आकाश अलोकाकाश ६ लोकाकाश लोकाकाश अलोकाकाश ये दो भेद सिर्फ लोक और अलोक की विवक्षा मात्र से ही किये गये हैं । परन्तु संपूर्ण आकाश द्रव्य एक अखण्ड द्रव्य है । जैसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों के आकाश अलग अलग नहीं हैं। सीमारेखा बीच में बनाकर धरती का विभाजन करके अलग-अलग देश की संज्ञा दी जा सकती है, लेकिन आकाश का विभाजन नहीं किया जा सकता। फिर भी धरती की उस सीमारेखा के उपरी भाग के आकाश की विवक्षा करके आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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