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________________ राजलोकव्यापी एक अखण्ड-असंख्य प्रदेशी धर्मास्तिकाय स्कंधरूप द्रव्य हैं । इसीके एक क्षेत्र भाग में छोटे भाग की देश संज्ञा की जाती है। और अविभाजित अंतिम सूक्ष्म स्वरूप एक को प्रदेश संज्ञा दी गई है । यह सूक्ष्मतम प्रदेश कभी भी स्कंध से विभाजित नहीं होता है । अतः इसके अजीव होते हुए भी अणु-परमाणुरूप भेद नहीं होते हैं । अतः स्कंध, देश और प्रदेश इन ३ भेदों की ही विवक्षा इस धर्मास्तिकाय द्रव्य की होती है । यह गतिसहायक स्वभाववाला द्रव्य समस्त लोक-क्षेत्र में जीव और पुद्गल दोनों द्रव्यों को गति में सहायता प्रदान करता है । यदि गति-सहायता स्वभावजन्य होने से स्वाभाविक है। इस में धर्मास्तिकाय का कर्तृत्व करने का स्वभाव नहीं है । जैसे पानी में रही हुई मछली को चलने में-गति करने में पानी सहायक है। परन्तु पानी गतिकारक नहीं है । क्योंकि मछली स्वयं चलती है। पानी चलता नहीं है । वैसे ही गति तो जीव और पद्गल ये दो द्रव्य ही करनेवाले हैं। इनकी गति में सहायक धर्मास्तिकाय द्रव्य है। जैसे चलने के स्वभाववाली होते हुए भी मछली पानी न होने पर चल नहीं सकती, पानी अत्यन्त आवश्यक है, ठीक वैसे ही धर्मास्तिकाय द्रव्य के बिना लोक में जीव और पुद्गल द्रव्यों की गति कभी भी संभव नहीं है। यद्यपि धर्मास्तिकाय कुछ भी करता नहीं है, फिर भी स्वभावगत गतिसहायकता का गुण होने से दोनों को गति में सहायता करता है । अतः गति के लिए यह माध्यम है। धर्मास्तिकाय द्रव्य का अस्तित्व लोक के बाहर अलोक क्षेत्र में न होने के कारण जीव-पुद्गल की अलोक क्षेत्र में गति नहीं होती है । मात्र लोक क्षेत्र में ही संभव है । जैसे समद्रगतादि पानी में ही मछली की गति होती है । उससे उपरी आकाश क्षेत्र में जहाँ पानी नहीं है वहाँ मछली की गति नहीं होती है। वैसे ही लोक क्षेत्र के बाहर धर्मास्तिकाय द्रव्य न होने से अलोक में किसी की गमनागमनरूप गति नहीं होती है। २) अधर्मास्तिकाय द्रव्य धर्मास्तिकाय से ठीक विपरीत स्वभाववाला अधर्मास्तिकाय द्रव्य है, अर्थात् धर्मास्तिकाय गति-सहायक है तो यह अधर्मास्तिकाय स्थिति-सहायक द्रव्य है । अन्य आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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