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________________ में जाएंगे। इसके सिवाय अन्य कोई विकल्प ही नहीं है । हमें भी यह मार्ग (धर्म) अपनाना है । जगत् के समस्त जीवों की दृष्टि से यह कहा गया है। धर्म-संप्रदायात्मक नहीं गुणात्मक मार्ग १४ गणस्थानों का यह मोक्ष प्राप्ति का शाश्वत राजमार्ग किसी भी सम्प्रदाय, गच्छ, पन्थ या धर्मविशेष का नहीं है । यह तो सिर्फ एक मात्र आत्मा के आत्मिक गुणों के विकास का राजमार्ग है। किसी धर्म की, या किसी भगवान-गुरु के अधिकार या आधिपत्य का विषय ही नहीं है । इस मोक्षमार्ग पर किसी भी धर्मविशेष की या भगवान की छाप-मुहर नहीं लगी है। अतः यह प्रत्येक आत्मा की, और प्रत्येक आत्मा के लिए जिसे भी संसार से छूटकर-मोक्ष में जाना हो उसके लिए यह राजमार्ग है । इसी पर चलना होना । अन्य कोई विकल्प ही नहीं है। __यदि भविष्य में चाहे सेंकडों-हजारों जन्मों के बाद भी इसी गुणस्थान के राजमार्ग से मोक्ष में जाना है तो फिर क्यों आज से ही क्रमशः एक-एक सोपान चढना प्रारम्भ करें? जी हाँ, भले ही आज मोक्ष की प्राप्ति न भी हो लेकिन आज भी ७ वें गुणस्थान तक तो पहँचा जा सकता है । १४ गुणस्थानों में से ७ की उपलब्धि आज भी संभव है, सरल है। और उपलब्ध है । मिथ्यात्व से निकलकर सम्यक्त्व प्राप्त करके शुद्ध सम्यग् दृष्टि श्रद्धालु एवं व्रतधारी-विरतिधर श्रावक आज भी बना जा सकता है। आसान है। और छट्टे-सातवे गुणस्थान पर आरूढ होकर... प्रमत्त-अप्रमत्त साधु आज भी बना जा सकता है। और बनते भी हैं । उसमें भी अप्रमत्तता लाकर अप्रमत्त श्रमण भी बना जा सकता है। भले ही काल का प्रमाण कम हो लेकिन संभव जरूर है। सिर्फ श्रेणी चढना संभव नहीं ___ अब आप ही सोचिए ? जब वर्तमान काल में भरत क्षेत्र में सब कुछ उपलब्ध है और हमने उपासना यदि नहीं की तो फिर आगे के जन्म में इसकी उपलबधि–प्राप्ति कहाँ से होगी? भले ही चाहे महाविदेह क्षेत्र मिल जाय तो भी धर्म-भगवान-गुरु आदि मिलने संभव नहीं रहेंगे। और धर्म के अभाव में पुनः दुर्गति ही मिलेगी। अतः आज प्राप्त उपलब्ध धर्म की उपासना करने में ही समझदारी है। १४ गुणस्थान यह साधना का मार्ग है । उपासना-आराधना का मार्ग है। अतः इसका सही शुद्ध स्वरूप समझकर साधना करने में विशेष उद्यमशील होना चाहिए । अब प्रमाद करने से नहीं चलेगा। प्रमाद भारी नुकसान कर सकता है। अतः अब साधना के विषय में प्रमाद छोडकर प्रबल पुरुषार्थ करके विकास साधना ही चाहिए।
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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