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________________ इसी पवित्र भावना से प्रेरित होकर १४ गुणस्थान विषयक “आध्यत्मिक विकास यात्रा” नामक प्रस्तुत पुस्तक लिखी है । इसी विषय की प्रवंचनमाला श्री वासुपूज्यस्वामी जैन श्वे. म. अक्कीपेठ-बेंगलोर के चातुर्मास में चली । श्रोताओं को समझाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। भव्यात्माओं को भी गहराई भरे तत्त्व समझने का अच्छा लाभ मिला। अन्त में इसका लेखन कार्य भी मैंने स्वयं ही किया, और परिणामस्वरूप छपकर प्रकाशित हुई, और पाठकवर्ग के करकमलों में आई। आशा है कि... पाठक, साधक और अभ्यास वर्ग अपनी-अपनी दृष्टि से उपयोग करेंगे। ज्ञान में, अभ्यास में, और साधना में आगे बढ़ेंगे, विकास साधेगे। क्रमशः आगे-आगे के गुणस्थानों के सोपानों पर आरूढ होकर आत्मशुद्धि-आत्मसिद्धि साधेगे। तब मुझे भी इस प्रयत्न की सफलता का संतोष प्राप्त होगा। सिद्धों के समक्ष अगणित वंदन करते हुए स्वयं को एवं समस्त जीवों को सिद्ध प्राप्त हो ऐसी भावना के साथ प्रार्थना करता हूँ। सभी जीव मुक्ति–मोक्ष को प्राप्त करें ऐसी शुभ भावना सतत रखता हूँ। साथ ही साथ जिन प्रवचन की प्रभावना करते हुए, प्रवचन पद की आराधना से ऐसा सामर्थ्य प्राप्त हो कि.. अनेक आत्माओं के मोक्षगमन में मुझे प्रेरक निमित्त कारण बनने का सुवर्ण अवसर प्राप्त हो, ऐसी प्रबल भावना रखता हूँ। सर्वज्ञ परमात्मा के सिद्धान्त के विरुद्ध अंशमात्र भी प्रमादवश लिखा गया हो तो .. अंतःकरणपूर्वक त्रिविध त्रिविध क्षमायाचना करता हुआ मिच्छामिदुक्कडं देता हूँ। सूज्ञ ज्ञानी गीतार्थ... मेरे अज्ञान निवारणार्थ ज्ञानप्रकाश से नेत्रांजन करके सुचक्षुरुन्मीलन करेंगे, तो जरूर अगणित उपकार मानता हुआ स्वीकार करूँगा । अतः सूज्ञ विद्वानों को मेरे अज्ञान निवारणार्थ विनंति करता हूँ। ।। इति सिद्धिः भवतु सर्वेषाम् ॥ -पंन्यास अरुणविजय महाराज
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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