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________________ सम्यक्त्व के गुणस्थान पर निश्चय सम्यक्त्वी बनकर जीव अधिक से अधिक ६६ सागरोपम का काल भी बिता देता है । पाँचवे गुणस्थान पर देशविरतिधर-व्रतधारी श्रावक बनकर भी काफी लम्बे काल तक रह सकता है । आयुष्य लम्बा होता है । ठीक इसी तरह छठे गुणस्थान पर सर्वविरतिधर साधु बनकर भी काफी लम्बा आयुष्य काल पूर्ण कर सकता है। और अन्त में १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर जीव ४ घनघाती कर्मों से मुक्त होकर सर्वज्ञ-वीतरागी-केवलज्ञानी तीर्थंकर भगवान बनकर भी काफी लम्बे आयुष्यकाल के वर्ष बिता सकता है । बस उसके पश्चात् गुणस्थानों के सोपान सभी पारकर सिद्ध बननेवाला सिद्ध जीव सिद्धावस्था में अनन्तानन्त काल बिताएगा। क्योंकि वह वहाँ जन्म-मरण-कर्म-सुख-दुःख इन सबसे परे हो चुका है । पार उतर चुका है। अरे ! काल से भी परे होकर अकाल-कालातीत बन जाता है। अब उसे वहाँ काल भी असर नहीं कर सकता है । इसलिए सिद्धों का पुनरागमन संसार में कभी नहीं होता है । वे कभी भी वापिस जन्म नहीं पाते हैं । न ही उन्हें पुनः कर्म बांधना है और न ही कोई सुख-दुःख भोगना है । बस जन्म-मरण-शरीर धारण करना, सुख-दुख, कर्म और संसार इन सबसे वे परे हो चुके हैं । पार पहुँच चुके हैं । इन सबके अतीत (पार) पहुँचकर सिद्धात्मा कालातीत, जन्मातीत, मरणातीत, सुखातीत, दुःखातीत एवं कर्मातीत, संसारातीत कहलाती है । अतः जिनके पार उतर कर अतीत में जो पहुँच जाता है उसे पुनः उनको प्राप्त करने का, धारण करने का सवाल ही नहीं खडा होता है । बीच के अवशिष्ट गुणस्थान २, ३,७,८,९,१०, ११, १२ इन सभी गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त २ घडी मात्र ही है । इन प्रत्येक गुणस्थान पर जीव २-२ घडी उत्कृष्ट रूप से रहता है । और आगे आगे बढता है । उदाहरण के लिए... सर्वथा सम्पूर्ण अप्रमत्त बनकर कोई वर्षों तक ७ वे अप्रमत गुणस्थान पर नहीं रह सकता है । इसी तरह ७, ८, ९, १०, ११, तथा १२ वे गुणस्थान पर भी २ घडी के अंतर्मुहूर्त का ही काल उत्कृष्ट से रहता है । इतना ही नहीं, अरे ! कोई ऐसी प्रबल शक्तिशाली आत्मा एकमात्र २ घडी के अंतर्मुहूर्त काल में ४ थे गुणस्थान से १३ वे गुणस्थान तक भी पहुँच सकती है । कोई ८ वे गुणस्थान से क्षपकश्रेणि प्रारंभ करके भी जीव २ घडी के सीमित काल में ध्यान की तीव्रता में कर्मक्षय करते हुए सीधे १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर तीर्थंकर भगवान, या अन्य सामान्य केवली भी बनता है। यह ध्यान द्वारा निर्जरा की तीव्रता आधारित है । अत्यन्त ऊँची कक्षा के विशुद्धतर अध्यवसायों पर आधार रहता है । कोई अनेक वर्षों का काल भी व्यतीत करता है। और कोई जीव अनेक जन्मों का काल भी व्यतीत करता है। भिन्न-भिन्न कक्षा के जीवों पर आधार रहता है।
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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