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________________ सम्यक्त्वी-शुद्ध श्रद्धालु, कभी श्रावक, कभी साधु बनकर, ध्यानी-योगी बनकर आगे-आगे बढ़ती ही जाती है। आगे-आगे के गुणस्थानों को प्राप्त करती हुई, अपना विकास साधती है । यह निगोद के निम्नतम स्थान पर-अव्यक्तावस्था में पड़ी हुई आत्मा को वहाँ से ऊपर उठाते-उठाते सिद्ध की सर्वोच्च-सर्वश्रेष्ठ कक्षा तक पहुँचने-पहुँचाने की प्रक्रिया विषयक यात्रा है । जीव की विकास यात्रा की शुभ शुरुआत निगोद से होती है और सिद्ध बनने में पूर्ण होती है । अतः प्रारंभिक एवं अन्तिम दोनों किनारे दर्शाए गए हैं। तथा दोनों किनारों के बीच जैसे नदी का पानी बहता है वैसे ही दोनों किनारों के बीच के सभी गुणस्थानों का स्वरूप-अवस्थादि सभी विषयों को यहाँ वर्णित किया है। गुणस्थान क्रमशः उत्तरोत्तर चढते हुए क्रम से हैं । एक से दूसरा श्रेष्ठ, आगे भी चौथे से पाँचवा श्रेष्ठ, छट्ठा श्रेष्ठ और सातवाँ आदि आगे-आगे के श्रेष्ठ श्रेष्ठतर, श्रेष्ठतम कक्षा में चढते ही जाते हैं । क्रमशः इन गुणस्थानों के सोपानों पर पहुँची हुई आत्मा वैसी गुणी-गुणवान बनती है। प्रथम मिथ्यात्व के गुणस्थान पर जीव मिथ्यात्वी बनता है। चौथे पर आकर श्रद्धालु-सम्यक्त्वी बनता है । पाँचवे पर आकर व्रत-पच्चक्खाणवाला विरतिधर श्रावक बनता है। छटे गुणस्थान पर चढकर जीव सर्वविरतिधारी, सर्वसंगपरित्याग कर, सर्वथा संसार का त्यागी-वैरागी साधु बनता है। आगे ध्यानी-योगी बनता हुआ आगे बढकर १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर जीव वीतरागी, सर्वज्ञ केवली बनता है। तीर्थंकर भगवान बनता है। और १४ वाँ गुणस्थान पार करके सिद्धशिला पर पहुँचकर सिद्ध भगवान बनता है । बस निगोद से प्रारंभ हुई यह विकास यात्रा पूर्ण हुई । आत्मा निगोद की अवस्था से अन्त में सिद्ध परमात्मा बन गई । बस अब इसके आगे विकास का एक भी सोपान चढना अवशिष्ट नहीं रहता है । पूर्णता प्राप्त हो जाने के पश्चात् अपूर्णता-अधूरेपन का अंशमात्र भी शेष नहीं रहता है । विकास क्रम की पूर्णता आ गई। गुणस्थानों पर काल___ संसार के व्यवहार में काल अपेक्षित तत्त्व है । सभी गुणस्थानों पर समानरूप से एक के जितना ही काल दूसरे पर नहीं लगता है। कुछ गणस्थान ऐसे हैं जहाँ जीव काफी लम्बे काल तक भी रहता है । जबकि शेष कई गुणस्थान ऐसे है जहाँ पर २ घडी-अन्तुर्मुहूर्त से ज्यादा स्थिरता ही संभव नहीं है । उदाहरणार्थ १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर जीव अनन्त काल भी निकाल देता है । इस अनन्त काल में अनन्त भव बिता देता है। ४ थे
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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