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का क्षय ही करना है तो फिर नए पापकर्मों को कौन समझदार उपार्जन करेगा? एक तरफ तो पुराने पापों का हिमालय जितना ढेर क्षय नहीं कर पाते हैं, तो फिर नए पाप करके उन कर्मों का प्रमाण बढाना ही क्यों चाहिए? अतः प्रत्येक साधक का लक्ष्य एक ही होना चाहिए कि ... "पुराने पापकर्म सिर पर रखना ही नहीं और नए पापकर्म करने ही नहीं है।" बस इतना लक्ष्य रखकर चलनेवाला ही सच्चा साधक-मोक्षमार्ग का उपासक कहलाएगा।
गुणस्थानारोहण
"आध्यात्मिक विकास यात्रा” के सोपान स्वरूप, माइलस्टोनरूप एक-एक गुणस्थान जैन शास्त्रों में बताए गए हैं। ऐसे कुल १४ गुणस्थानों में आध्यात्मिक विकास का स्वरूप बताया गया है । पू. उपकारी आचार्य भगवंत श्री रत्नशेखरसूरि महाराज ने आगमशास्त्रों कशास्त्रों में से सार-सार ग्रहण करके "गणस्थान क्रमारोह" नामक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना की है । उसमें एक-एक गुणस्थान का सुन्दर विश्लेषण करते हुए कर्मबंध, उदय, उदीरणा, सत्ता, क्षयादि का अनोखा–अद्भुत स्वरूप दर्शाया है । गुणस्थान के विषय को समझाने में यह अपने प्रकार का एक पूर्ण ग्रन्थ है । कर्मविज्ञान के स्वरूप और रहस्यों की पूर्ण प्रक्रिया के अभ्यास के बिना इस ग्रन्थ में प्रवेश होना बहुत ही मुश्किल है । जरूर यह बडा ही जटिल ग्रन्थ है । अतः इसे समझने के लिए सरलीकरण रूप विवेचन इस “आध्यात्मिक विकास यात्रा” नामक पुस्तक में करने का रखा।
“आध्यात्मिक विकास यात्रा” नामक प्रस्तुत पुस्तक में निगोद की प्राथमिक अवस्था से जीव की अन्तिम सिद्धावस्था तक का स्वरूप वर्णित किया गया है । प्रासंगिक स्वरूप में निगोद का स्वरूप, जगत् का स्वरूप, जगत् कर्ता ईश्वर है या नहीं? का स्वरूप, आत्मा का स्वरूप, काल की विचारणा, मोक्ष मीमांसा, अन्य दर्शनों की मीमांसा आदि अनेक अवान्तर आगुषंगिक विषयों का समावेश भी साथ ही किया है । जो मूल विषयों को स्पष्ट समझने के लिए सहायक बन सके । साथ ही साथ समझने में सरलता-सुगमता रहे इसके लिए अनेक चित्रों द्वारा इस पुस्तक सचित्र बनाई गई है। चित्र भी तत्त्वों को समझने में काफी अच्छे सहायक बनते हैं।
___ यात्रा शब्द इसलिए सार्थक लगता है कि...“चेतनात्मा एक–एक गुणस्थान के सोपान पर आरूढ होकर, अपना वैसा स्वरूप बनाकर पुनः आगे बढ़ती है । एक एक गुणस्थान पर रुककर वैसी बनकर-वैसा स्वरूप धारण करके पुनः आगे बढ़ती है। कभी