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आत्मा पर चारों तरफ संपूर्ण रूप से लगे हुए कर्म के आवरणों का जो स्तर - पडलरूप बन गया है, उस गाढ कर्म के आच्छादक परदे के बीच से सूंई की तरह दृष्टि आरपार पहुँच जाती तभी आत्मराम के दर्शन कर पाती है आत्मा । तब अपने सहस्रसूर्य समान तेजस्वी ज्ञानमय–आनन्दमय शुद्धस्वरूप का दर्शन कर पाती है। बस यही करना है । एक बार आत्मानन्द का रसास्वाद कर लेने के पश्चात् वह रस्नास्वाद भूला नहीं जा सकता । फिर वह रसास्वाद ही जागृति लाता है, और आत्मा को अपने साध्य तक पहुँचने में सहायक बनता है । बस फिर तो सभी कर्मों का क्षय करने की पूरी कोशिश की जाती है ।
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अनन्त काल में जो अपूर्व शक्ति नहीं आई वह और वैसी शक्ति अब आई है । यही शक्ति काम की है । फिर शरीर की शक्तियाँ पाकर बढाकर कुश्तीबाज बनकर विश्वविजेता की उपाधियाँ प्राप्त करने का कोई अर्थ ही नहीं रहता है । सब निरर्थक - व्यर्थ है । अब आत्म विजेता की सर्वश्रेष्ठ उपाधि प्राप्त करने का लक्ष्य-साध्य रखकर आत्मविजेता बनना चाहिए। याद रखिए ऐसा आत्मविजेता - कर्मविजेता ही सच्चा विश्वविजेता कहलाता है, और ऐसा विजेता सदा के लिए... अनन्तकाल तक अजेय रहता है ।
आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विकास करने की दिशा में आगे प्रयाण करते रहना ... ही आध्यात्मिक विकास यात्रा है। विकास शब्द द्व्यर्थी प्रक्रिया का सूचक है। कर्म का क्षय और आत्मा की शुद्धि । यदि गहराई में उतरकर देखा जाय तो दोनों एक ही है । यहाँ कार्य दो लगते हैं, परन्तु फलस्वरूप दोनों एक ही है। दोनों के बीच कार्य-कारण भाव का संबंध है । कर्मक्षय कारणरूप है । और आत्मशुद्धि कार्य - फलस्वरूप है । कर्मक्षय क्रियात्मक है और आत्मशुद्धि क्रिया के फलस्वरूप है। जैसे भोजन करने की क्रिया और उदरपूर्ति-तृप्ति होना दोनों कार्य-कारण भाव से एकरूप ही हैं ।
जहाँ तक कर्मों का क्षय नहीं होगा वहाँ तक आत्मशुद्धि नहीं होगी, और जब तक आत्मशुद्धि नहीं होगी वहाँ तक आत्मा का विकास नहीं होगा, और जब तक आत्मा का विकास नहीं होगा तब तक आत्मा गुणश्रेणी पर आगे नहीं बढेगी । और जब तक आत्मा गुणश्रेणी पर अग्रसर नहीं होगी तब तक मुक्ति नहीं होगी । अतः मुक्ति के लिए गुणस्थानों पर आगे बढना आवश्यक है, और गुणस्थानों पर आगे बढने के लिए आत्मिक विकास साधना जरूरी है । तथा विकास साधने के लिए आत्मशुद्धि आवश्यक है । तथा आत्मशुद्धि हेतु कर्म का क्षय (निर्जरा) अनिवार्य है, और कर्मक्षय (निर्जरा) के लिए आध्यात्मिक धर्म की उपासना अत्यन्त आवश्यक है । वैसा आत्मधर्म आराधते हुए या आराधन करने के लिए पापादि की प्रवृत्ति करना सर्वथा वर्ज्य है । जब पुराने पाप-कर्मों
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