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“अध्यात्मशास्त्रमुत्ताल-मोहजालवनानलः ।। – विकट महामोहजालरूपी वन को जलाने में दावानल के समान है।
येषामध्यात्मशास्त्रार्थतत्त्वं परिणतं हृदि ।
कषाय-विषयावेश-क्लेशस्तेषां न कर्हिचित् ।। १४ ।। -- अध्यात्म शास्त्र के भावार्थ-रहस्य का तत्त्व जिनके भी हृदय में परिणमन हो चुका है उन्हें कभी क्रोधादि कषायों का क्लेश संताप नहीं सताता है । क्योंकि वे अपने मन-इन्द्रियों को वश में रखते हैं।
निर्दयः कामचण्डालः पण्डितानपि पीडयेत्।
यदि नाध्यात्मशास्त्रार्थबोध-योधकृपा भवेत् ।। - अध्यात्म शास्त्र के अर्थबोधरूपी योद्धा की कृपा न हो तो निर्दय काम चण्डाल पंडितों को भी पीडित–दुःखी कर देता है । सोचिए पंडितों-विद्वानों की हालत ऐसी हो जाय तो फिर सामान्य बाल जीवों की तो पूछना ही क्या?
अध्यात्मशास्त्रहेमाद्रि-मथितादागमोदधेः ।
भूयांसि गुणरत्नानि प्राप्यते विबुधैर्न किम् ॥ - अध्यात्म-शास्त्ररूपी मेरुपर्वत को दण्ड बनाकर यदि आगम सागर का मंथन किया जाय तो विद्वान-ज्ञानी भी अनेक रत्नों के निधान को पा सकते हैं ।
इस तरह अध्यात्म शास्त्र का, ज्ञान का अनेक दृष्टिकोण से अद्भुत-अनुपम माहात्म्य दर्शाया गया है । इसका महत्व समझकर सभी को अध्यात्म की दिशा में प्रगति करनी ही चाहिए।
आध्यात्मिक विकास यात्रा
हम तीर्थों की यात्रा तो करते ही हैं। “यात्रा” शब्द तीर्थभूमियों-तीर्थस्थानों में पहुँचकर परमात्मा की दर्शन-पूजा करके निकलना है । “दर्शनं पापनाशनं" का हेतु सार्थक करना है । यात्रा-गमन अर्थ में है । यहाँ आध्यात्मिक यात्रा है । यह भी ध्यान की प्रक्रिया के अर्थ में है । इसमें मन आत्ममंदिर में दर्शनार्थ जाता है । आत्मारूपी-परमात्मा के विराट स्वरूप का, गुणों का दर्शन करता है । गुणों के प्रति पूज्यभाव से श्रद्धासुमन चढाकर भावपूजा करता है । पूज्य भाव व्यक्त करता है । अंतर्ध्यान हो जाती है । आत्मा अपनी ही अंतर्यात्रा स्वयं करती है । उस समय दो के दर्शन होते हैं । प्रथम कर्मपडल-आवरण का ।