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विजातीय तत्त्व के साथ घुला–मिला हुआ मिश्रीभावयुक्त दिखाई देता है । ठीक उसी तरह अब आत्मा का भी शुद्ध स्वरूप स्वतंत्र रूप से दृष्टिगोचरं नहीं होता हुआ कर्म के रंग से रंगा हुआ ही दिखाई देता है । अतः आत्मा के बिना कर्म का अस्तित्व ही नहीं है । कल्पना भी नहीं की जा सकती है । अतः संसारी अवस्था में कर्म संयुक्त ही आत्मा है। अतः संसार से सदा के लिए मुक्त अर्थात् सर्वथा कर्म से मुक्त होना ही सच्ची मुक्ती है । कर्म मुक्ति कारण रूप है और संसार मुक्ति फल (कार्य) स्वरूप है । व्यवहारिक भाषा में संसार से मुक्ति ऐसे भाषा के प्रयोग में बोला जाता है, जबकि शास्त्रीय भाषा में कर्म से मुक्ति की भाषा का प्रयोग होता है।
__ जैसे जेल में बंदिस्त चोर अपराधी रात-दिन मुक्त होने के लिए दाव-पेच रचता है, या पिंजरे में बंध पशु-पक्षी दिन-रात चक्कर लगाते-उडते हुए प्रयत्नशील रहते हैं। उनसे भी हजार गुना ज्यादा कर्म रूपी पिंजरे में बंदिस्त पापासक्त यह अपराधी आत्मा निरन्तर-अविरत उस कर्मबंध से मुक्त होने के लिए तडपती रहे, सोचती-विचारती रहे, उपाय करती रहे । उस उपायभूत ज्ञान को ज्ञानियों ने “अध्यात्म विद्या, आध्यात्मिक शास्त्र" नाम दिया है । इस अध्यात्म शास्त्र Spiritual Science में आत्मा को मोहादि कर्मों के बंधन से कैसे मुक्त होना? और आत्मा का पूर्ण शुद्ध स्वरूप कैसे प्रगट करना? इसकी प्रकिया उपाय और ज्ञान दर्शाया गया है। इसलिए सब प्रकार के विज्ञानों में सर्वोपरि विज्ञान आध्यात्मिक विज्ञान है । The Spiritual Science is the Supreme Science of all the Sciences.
आपने यदि सब कुछ जाना है, समझा है, सेंकडों विषयों का ज्ञान सम्पादन भी किया है परन्तु यदि अध्यात्म शास्त्र यदि नहीं जाना, नहीं समझा, या आध्यात्मिक ज्ञान नहीं सम्पादन किया तो निश्चित ही समझिए कि... आपका समस्त ज्ञान निरर्थक है, निष्फल है, शून्य है । “अध्यात्मसार” नामक ग्रन्थ में पूज्यश्री महामहोपाध्यायजी यशोविजयजी म. सा. ने इसी सार का निर्देश किया है- वे स्पष्ट कहते हैं कि.
यः किलाशिक्षिताध्यात्मशास्त्रः पाण्डित्यमिच्छति ।
उत्क्षिपत्यंगुली पंगुः स स्वर्ट्फललिप्सया।। ११ ।। - अध्यात्म शास्त्र के अध्ययन के बिना ही जो पण्डित्य–विद्वत्ता की इच्छा करता है, वह उस पंगु के समान है, जो कल्पवृक्ष के फल लेने के लिए अंगुली ऊँची करता है। ऐसी हास्यास्पद स्थिति होती है।