________________
अनन्त ज्ञान के लिए वीतरागता उतनी ही अनिवार्य है । वीतरागभाव न हो और यदि राग- द्वेष से ग्रस्त आत्मा हो तो फिर हमारा समस्त ज्ञान राग-द्वेष से ग्रस्त कलुषित हो जाएगा । वह विकृत हो जाएगा । अतः ज्ञान में से विकृति निकालने के लिए भी राग- - द्वेष का सर्वथा समूल - सर्वांशिक नाश-क्षय करना अत्यन्त आवश्यक है । क्योंकि ये राग-द्वेष जब तक अस्तित्व में रहेंगे वहाँ तक वे ज्ञान ज्ञान आनन्द को भी उत्पन्न होने या टिकने ही नहीं देंगे । राग- - द्वेष विषय - कषाय-काम-क्रोधादि सब का समूल नाश-क्षय करने का ही हमारा लक्ष्य रहना चाहिए । यही हमारा धर्म बनना चाहिए। इन सबका एक सम्मिलित नाम “जैन कर्म विज्ञान” ने 'मोह' मोहनीय कर्म दिया है ।
अध्यात्म विद्या
आजीविकादि निमित्तक जैसे सब तरह के अनेक विषयों का ज्ञान है वैसे ही इन राग-द्वेषात्मक, विषय–कषायात्मक मोहनीय कर्म को जीतने के लिए, सबका स्वरूप समझने और सबका समूल आत्यन्तिक क्षय करने के लिए जो ज्ञान है उसका नाम - “अध्यात्म शास्त्र” है । अध्यात्म विद्या है। इसमें आत्मा का प्रमुख लक्ष्य लेकर उस पर लगे मोहनीयादि कर्मों का स्वरूप समझाया गया है। तथा रोग ही नहीं अपितु दवाई - उपचार स्वरूप में मोहनीयादि कर्मों का सर्वांशिक - समूल नाश- क्षय करने की प्रक्रिया भी विस्तार से समझाई गई है । अतः इसे अध्यात्म या आध्यात्मिक शास्त्र Spiritual Science कहा गया है ।
याद रखिए, कर्म और आत्मा एक दूसरे से संलग्न हैं। एक ही सिक्के को दो बाजू की तरह हैं । संसार में कर्मरहित आत्मा नहीं है और आत्मारहित कर्म के अस्तित्व का तो सवाल ही नहीं खड़ा होता है । क्योंकि आत्मा बांधे तो ही कर्म बनते हैं । कर्म कहलाते हैं, अन्यथा नहीं । आत्मा ही अपने मिले हुए साधन मन-वचन-काया से जो जिस प्रकार की शुभाशुभ - पुण्य-पापात्मक प्रवृत्ति करती है । उसी के कारण बाहरी आकाश मण्डल में रही हुई कार्मण वर्गणा के पुद्गल - परमाणुओं को आकर्षित करके आश्रव द्वारा अन्दर खींचकर आत्मप्रदेशों के साथ एक-रस कर बांधती है तब कर्म बनते हैं । जैसे 1 दूध - पानी की तरह, दूध-शक्कर की तरह यां अग्नि और लोहे की तरह मिल-जुलकर एकरस बन जाते हैं, ठीक उसी तरह आकृष्ट कार्मण वर्गणा के जड मुद्गल परमाणु आत्म प्रदेशों के साथ मिल-जुलकर एक रसी भाव (बंध तत्त्व) बन जाते हैं तब वे “कर्म" संज्ञा पाते हैं । अब पानी - शक्कर या लोहे का स्वरूप स्वतंत्र रूप से स्पष्ट नहीं दिखता है । परन्तु उस