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अतः सही अर्थ में यदि जीव को सुखी होना ही हो, सुखानुभूति करनी ही हो तो निश्चित रूप से उसे सर्वप्रथम यह निर्णय करना ही होगा कि ... " हर हालत में मुझे स्ववश–स्वाधीन—स्वतंत्र सुख ही भोगना चाहिए, पर - बाह्य पदार्थों के अधीन—पराधीन—परवश–बनकर सुख भोगना ही नहीं है, मन-वचन-काया और इन्द्रियों से सुख भोगना ही नहीं है” ऐसा दृढ संकल्प करके इस निर्धार के साथ सच्चे सुख की प्राप्ति की दिशा में आगे बढना चाहिए । अन्यथा नहीं ।
आध्यात्मिक सुख
आत्मा से सीधे जो सुख भोगा जाय वही आत्मिक सुख है । वही स्ववश - स्वाधीन, स्वतन्त्र सुख है और वही वास्तविक सच्चा सुख कहा गया है। संसार के सुख सुखाभास होते हुए भी दुःखरूप फलदायी रह जाते हैं । जबकि आत्मा का सुख बढकर आनन्दरूप बन जाता है | आनन्द - परमानन्द बनता है । सच्चिदानन्द, आनन्दघन बनता है । याद रखिए, सुख बडा नहीं आनन्द बडा है । सुख और आनन्द के बीच की भेदरेखा को साधक समझ सकता है । सुख के आधार पदार्थ - वस्तुएं बन सकती है, जबकि आनन्द का आधार सम्यग् ज्ञान बनता है । बिना सच्चे यथार्थ ज्ञान एवं वीतराग भाव के आनन्द नहीं प्राप्त होता है । और बिना आनन्द के सच्चा सम्यग् यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं होता है । आ अपना ही सच्चा ज्ञान बढाकर आनन्द की अनुभूति में मस्त रह सकती है । इसीलिए आनन्द को ज्ञानानन्द कहा जाता है । संसार के पदार्थों को सुख प्राप्ति के लिए भोगने के लिए किसी भी प्रकार के सच्चे ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं रहती है । बिना आत्म ज्ञान के रागादि मोहभाव से भी संसार के पौद्गलिक पदार्थ भोगे जा सकते हैं । उनमें से सुख प्राप्त किया जा सकता है । जबकि आत्मा के आनन्द की प्राप्ति यदि करनी हो तो आत्मा के सच्चे वास्तविक ज्ञान को अनिवार्यरूप से प्राप्त करना ही चाहिए । बिना उसके कभी भी आनन्दानुभूति नहीं होगी ।
संसार मुक्त सिद्धावस्था में वही आनन्द अनन्तगुना बढकर अनन्तानन्द बन जाता है । हमारी भाषा में हम उसे असीम, अमाप अगणित, अपरिमित, अनन्त आनन्द कहते हैं । जब आनन्द ही इतना अनन्त बन जाता है तो उसका आधारभूत ज्ञान कितना बढ़ना या होना चाहिए ? स्पष्ट ही है कि ज्ञान भी असीम, अमाप, अगणित, अपरिमित, अनन्त ज्ञान होना ही चाहिए .... तभी आत्मा सर्वज्ञ, वीतरागी, अरिहंत - तीर्थंकर भगवान, या सिद्ध भगवान कहलाती है । या बनती है। ज्ञान और आनन्द दोनों एक-दूसरे से जुडे हुए हैं । -- आधेय भावसंबंध से संलग्न है ।
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