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के जड भौतिक पौद्गलिक परमाणुओं को ग्रहण करके उन्हें भाषा के रूप में परिणमन करती है। बिना चेतनात्मा के यह कार्य कोई कर ही नहीं सकता है । जड कभी भी अ-ब-क-ड आदि के सही उच्चार की भाषा का प्रयोग कर ही नहीं सकता है । अच्छी–सुंदर भाषा बोलकर बोलनेवाला तथा सननेवाला दोनों सुख पाते हैं। परन्तु मोहनीय कर्म का उदय होने के बाद कषायादि द्वारा जब गाली-गलौच की अपशब्दों से भरी हुई भाषा जब कोई बोलता है तब स्व–पर दोनों को दुःख होता है । भाषा से सुख-सत्ता-मान-सन्मान भी पाया जा सकता है । और भाषा के ही कारण दुःख-हल्का स्थान-अपमान-तिरस्कार भी प्राप्त किया जा सकता है। दोनों का आधार भाषा पर है, और भाषा का आधार जीव पर है । यदि जीव सोच समझकर सुव्यवस्थित प्रिय–मधुरं सच्ची भाषा बोले तो कहीं दुःख का प्रश्न ही खडा नहीं होगा। इसीलिए कहा है कि- .
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात् अप्रियं च सत्यं । सत्य जरूर बोलिए लेकिन उसे भी मीठा बनाकर मधुर बोलिए। लेकिन अप्रिय कटु सत्यं भी मत बोलिए । हो सकता है कि सत्य होते हुए भी अप्रिय कटु होने के कारण वह सत्य भी मार खा जाएगा। सामनेवाला शायद ग्रहण न भी करे। अतः हितकारी-प्रिय-आदरार्थी, मधुर ऐसी सत्ययुक्त भाषा बोलनी चाहिए। ऐसी भाषा से व्यक्ति दुश्मन को भी मित्र बना सकती है । किसी को वश में कर सकती है । अतः वशीकरण विद्या भाषा में है । भाषा सुख और दुःख दोनों में कारण बनती है । परन्तु भाषा भी आत्मा से परे है । इसलिए इससे मिलनेवाला सुख भी पर–बाह्य है यह सुख भी परवश–पराधीन है।
___ इस तरह मन–शरीर-इन्द्रियाँ-वाचा आदि सभी जो पर हैं, बाह्य हैं, जडरूप हैं, इनके अधीन होकर जो भी सुख आत्मा भोगने गई उसमें आत्मा ने ज्यादा मार ही खाई है । दुःख भोगकर दुःखी ही हुई है । संसार के सभी सुख मन-वचन-काया और इन्द्रियों के अधीन हैं । इनसे भोगे जाते हैं । अतः संसार के सुखों में से एक भी सुख ऐसा नहीं है जो मनादि के बिना भोगा जा सके, नहीं है । सभी सुख मनादि द्वारा भोगे जाते हैं। और ये मनादि सभी जड हैं । पर-बाह्य हैं । अतः ये सुख पराधीन–परवश-परतंत्र हैं । स्वाधीन नहीं हैं। और जब आत्मा पराधीन बनकर सुख भोगने जाती है तब ज्यादा दुःखी बनती है। एक तरफ तो वह सुख सच्चा नहीं है। सुखाभास मात्र है। और सुखाभास दुःखरूप-दुःखदायी लगता है । परिणामस्वरूप आत्मा ज्यादा दुःखी होती है।