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कर्म प्रकृति है । तथा प्रकार की कर्म प्रकृति के अनुसार और अनुरूप मनादि आत्मा बनाती है । आत्मा के बिना मन का अस्तित्व नहीं है परन्तु मन के बिना भी आत्मा का अस्तित्व जरूर रहता है।
कई जीव जो १ से ४ इन्द्रिय तक के हैं वे “मन” बनाते ही नहीं है, (वैसी कर्म प्रकृति के अभाव में) अतः वे असंज्ञि-अमनस्क कहलाते हैं । चिंटी-मकोडे-मक्खी-मच्छर तक तथा पंचेन्द्रियों में भी अमनस्क होते हैं। उनके पास विचारशक्ति नहीं होती है । संज्ञि समनस्क मनुष्यों देवादि के पास सोचने-विचारने की शक्ति होती है। लेकिन इस विचारशक्ति का दुरुपयोग करके हमें गलत-विपरीत नहीं सोचना चाहिए । सत्य की ही दिशा में सोचते हए चरम सत्य को पाना चाहिए। इसी में सार्थकता है।
अब आप स्वयं ही सोच सकते हैं कि...जो मन से मानासिक विचारों मात्र से सुख पाते हैं वह मानसिक सुख भी आत्मा के लिए पराधीन–परवश है । कई जीव शेखचिल्ली की तरह हवाई तरंगों के विचारों को करते करते अपने आपको सुख प्राप्त होता है ऐसा मान लेते हैं । निद्रावस्था में स्वप्न भी विचारमय ही है । स्वप्न में अपने आपको राजा बना हुआ देखकर क्षणभर के स्वप्न में ही सुखी मान लेता है । लेकिन नींद खुलने पर वही दरिद्रावस्था देखकर फिर अफसोस मानकर हाय मलने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रहता है । मन विकल्पों से भरा हुआ है। मन के द्वारा किए गए मानसिक विचार अल्पकालिक हैं । विचार क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रह पाते हैं । अतः मन के विचारों का सुख भी क्षणजीवी होता है । स्वर्ग की अप्सरा पाने का भोगने का सुख क्षणमात्र टिकता है, अतः क्षणिक है। क्षणमात्र टिकनेवाले विचार से जीव क्या सुखी होगा? नहीं, कदापि नहीं। आत्मा का सुख शाश्वत-नित्य है, जबकि मानासिक सुख मात्र क्षणिक है । कल यदि मन सही सोच ही न पाए, या ज्यादा अशुभकर्मों के उदय के कारण मानसिक रोगों से ग्रस्त-उन्मानादि के अधीन हो जाय, तो... या गिलपन मुर्खतादि बढ जाय तो वही मन सुख के बदले दुःख का कारण बन जाता है । अच्छे शुभ विचार स्व–पर उभय के लिए सुख का कारण बनते हैं, और अशुभ-खराब विचार स्व–पर उभय के लिए दुःखरूप बन जाते हैं। इसीलिए अशुभ-खराब विचारों को कृपया बाहर नहीं फेंकने चाहिए। शुभ-अच्छे विचारों को अनेकबार जगत् के सामने रखिए, सबको फायदा होगा।
इसी तरह वाचा-वाणी का भी यही स्वरूप है। भाषा भी जड है। पौगालिक है। भाषा वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं से ही भाषा बनती है । यह कार्य भी जीवात्मा का ही है। आत्मा ही अपनी विशिष्ट प्रकार की कर्मप्रकृति के अनुसार बोलने के लिए भाषा वर्गणा