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________________ के बिना शरीर का अस्तित्व मान लेनेवाले उससे भी डबल मुर्ख है। क्योंकि आत्मा हो और वह बनाए तो ही शरीर बन सकता है । उसके बिना शरीर का अस्तित्व ही नहीं रहता है। इसीलिए गर्भ में पहले आत्मा प्रवेश करती है फिर वह वहाँ गर्भ में उपलब्ध आहार के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करके स्व-कर्मानुसार देहपिण्ड की रचना करती है। और उस स्वनिर्मित शरीर में निर्धारित कालावधि तक रहने का समय आयुष्यकर्मानुसार प्राप्त होता है । बस आयुष्य कर्म की कालावधि समाप्त होने पर आत्मा इस पौद्गलिक देहपिण्ड को छोडकर चली जाती है । तत्पश्चात् संसार के नियमानुसार उस जड देह को ले जाकर राख कर दिया जाता है । आखिर आत्मा के आगमन और देह के साथ संयोग को जन्म कहा जाता है तथा देह का वियोग कर जाने को मृत्यु कही गई है। अतः यह देह स्वभिन्न-आत्मा से अलग-पराया–बाह्य है। अब आत्मा शरीर के माध्यम से जो भी सुख भोगेगी वह सब पराधीन–परतन्त्र कहलाएगा । इन्द्रियाँ ये शरीर की खिडकी दरवाजे के रूप में है । जिनके माध्यम से आत्मा बाह्य-पर पदार्थों का बोध ग्रहण कर सकती है। कल यदि शरीर शक्तिहीन निर्बल, रोगग्रस्त हो जाय तो कोई भी सुख नहीं भोगा जा सकता है। सुख भोगना तो दूर रहा लेकिन शरीर ही दुःखरूप-भाररूप लगेगा। मन-इन्द्रियों से भी परे आत्मा शरीर की ही तरह “मन” भी एक जड साधन मात्र है । न तो मन आत्मा है और न ही आत्मा मन है । आत्मा को मन कहना या मन रूप में मानना, या दोनों को एक ही कहना, या एक शब्द से ही वाच्य बनाकर व्यवहार करना भी मूर्खता है । सर्वथा गलत है । संसार में मन रहित-विना मन के भी अनन्त जीव हैं और मनसहित–मनवाले भी असंख्य जीव हैं । सर्वथा बिना मन के जीनेवाले असंज्ञि-अमनस्क कहलाते हैं और मनसहित मनवाले जीवों को संज्ञि समनस्क कहते हैं । चेतनात्मा ज्ञान दर्शनात्मक चेतनायुक्त चैतन्यस्वरूप पदार्थ है जबकि मन ज्ञान-दर्शनादिरहित जड-पद्गल परमाणुओं से निर्मित पद्गल पिण्डरूप जड पदार्थ है। जैसे आत्मा ने रहने के लिए शरीर बनाया उसी तरह सोचने विचार करने के लिए मन को बनाया है। जिसके माध्यम से सोचने-विचारने की प्रक्रिया चल सके । पानी जैसे मछली के लिए चलने-रहने के लिए माध्यम–साधन है वैसे ही सोचने-विचारने के लिए सहायक साधन मन है । फिर कैसे मन को आत्मा माना जाय या आत्मा को मन कैसे कहा जाय? ऐसी छोटी सी भूल भी बहुत बडी भयंकर भूल बनकर संपूर्ण विकास को अवरुद्ध कर देती है। मन को बनाने के लिए आत्मा के पास स्वतंत्र
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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