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के बिना नींद न आनेवालों को बिजली के अभाव में पसीने की बदबू में नरकागार लगेगा। कल मारुति के बिना न चलने वालों की “मारुति" का जब अकस्मात हो जाएगा तब वह मारुति-मारुति ही नहीं रहेगी ... शायद पीछे “माँ-रोती” रह जाएगी। याद रखिए, संसार के प्रत्येक सुख पराधीन है, परवश है, परतंत्र है । अतः पू. हरिभद्रसूरि म. योगबिन्दु में ठीक ही कह रहे हैं कि
स्ववशैव सुखं सर्वं, परवशमेव दुःखम्।
एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः ।। याद रखिए और पाषाण की तक्तीपर लिखकर रखिए कि- सबकुछ जो स्ववश-स्वाधीन और उसी में सुख है । तथा जो जो परवश-पराधीन-परतन्त्र हैं उसमें निश्चित रूप से दुःख ही दुःख है । बस संक्षेप में यही सुख-दुःख का लक्षण है । “आत्मा" एक ही "स्व"शब्दवाच्य है। शेष सभी “पर"शब्दवाच्य है । अतः पराए हैं। तथा पर होने से बाह्य हैं । इन्द्रियाँ भी पर है। शरीर भी पर है, जी हाँ, मन भी पर है, और यह वाचा-वाणी भी पर है। इसलिए जो भी सुख शरीर, इन्द्रियों, और मन से भोगा जाता है वह सब पर-बाह्य है। अतः वह सुख नहीं अपित् दुःख ही है। आभास मात्र होने से सुखाभास कहलाता है । जिन ज्ञानेन्द्रियों या जननेन्द्रियों से जो ऐन्द्रिय सुख भोगा जाता है अन्त में इन्द्रियाँ या जननेन्द्रियों से जो ऐन्द्रिय सुख भोगा जाता है अन्त में इन्द्रियाँ क्षीण होने पर, या शक्ति क्षीण होने पर, या विकलेन्द्रिय-विकलांग बनने पर वे ही सुख के साधन दुःख रूप लगते हैं। आत्मा इन्द्रियों के अधीन बनकर सुखों को भोगती है । अतः वे सभी सुख पराधीन कहलाते हैं। पाँचों इन्द्रियों से २३ विषयों के सुख भोगे जाते हैं अतः वे सभी वैषयिक सुख कहलाते हैं। जननेन्द्रियों द्वारा भोगा जाता सुख विषय-वासना का काम-सुख कहलाता है । शरीर भी पर है । न तो शरीर आत्मा है और न ही आत्मा शरीर है । शरीर जड और आत्मा चेतन है । शरीर पुद्गल परमाणुओं का संचित पिण्ड मात्र है । मलमूत्र का घर है । रोगों का घर है । ज्ञानादि गुणों से रहित नाशवंत है । जबकि चेतनात्मा ज्ञानादि गुणयुक्त शाश्वत-नित्य है । ज्ञान-दर्शनात्मक चेतनामय पदार्थ है । अतः आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न है और शरीर सर्वथा आत्मा से भिन्न स्वतंत्र पदार्थ है । लेकिन संसारी अवस्था में दोनों संयुक्त हैं । एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । आत्मा ने अपने रहने के लिए संसार में शरीररूपी घर बनाया है। आत्मा शरीर को बनाती है न कि शरीर आत्मा को बनाता है। एक अनादि-अनुत्पन्न-शाश्वत जो अजर-अमर पदार्थ है उसे बनाने का प्रश्न ही खडा नहीं होता है। शरीर को ही आत्मा मान लेनेवाले मूर्ख भ्रमणा में हैं। और आत्मा