________________
रो...रो... कर मौत के घाट उतरना पडता है । सरमुखत्यारों को भी हाय... हाय.... करके जाना पडता है। अनेक सुख-सुविधाओं के बीच जीते रहते धनाढ्य-गर्भश्रीमन्तों-महन्तों को भी ऐसे विदाय लेनी पडती है कि मानों कोई उनका नाम भी लेने के लिए राजी नहीं है। अनेक राजा-महाराजाओं को भी आत्मशान्ति के अभाव में तडप तडप कर मरना पडता है । चन्द्र और शुक्र पर जाकर आनेवालों को भी दुःखी-दुःखी होकर यमलोक जाना पडता है ।
कहाँ है सुख-शान्ति?
आखिर कहाँ है सुख-शान्ति? क्या सुख के साधनों में सुख ढूँढने के लिए मानव भ्रान्त तो नहीं हो गया है ? मृगमरीचिका की तरह सुखाभास में सुख मानकर भ्रान्त होकर कहीं भटक तो नहीं रहा है ? यन्त्रयुग के विज्ञानवाद ने दिये हुए सुख के साधनों में, भौतिक सुखसामग्रियों में सुखाभास मानकर भ्रमणावश मोहित तो नहीं हुआ है ? हँसी तो इस बात की आ रही है कि... नाशवंत पदार्थों में शाश्वत सुख मान रहा है । स्वयं की स्थिरता का कोई ठिकाना नहीं है फिर भी अस्थिर जीवन में स्थिर सुख मानने की बालिश चेष्टा आज का अज्ञानी मानव करता है । जब स्वयं ही सदाकाल रहनेवाला नहीं है। फिर भी सुख सदा रहेगा ऐसी भ्रमणाएँ बनाकर जी रहा है । जिसमें सुख-शान्ति नहीं उसी में मान लेना क्या यह मूर्खता नहीं है ?
कैसा सुख चाहिए? स्वतंत्र - स्ववश और स्वाधीन या फिर परतंत्र-परवश-पराधीन ? शायदं उत्तर में तो आप सभी स्वतंत्र-स्ववश-स्वाधीन ही कहेंगे? पसंद करेंगे। परंतु वर्तमान जीवन में जो कुछ चल रहा है बिल्कुल अलग ही चल रहा है। टी.वी., वीडियो, फोन, फ्रीज, गाडी, पत्नी, पुत्र, धन-संपत्ति, बाग-बंगला-आदि सेंकडों प्रकार की साधन-सामग्रियाँ क्या हैं? स्व हैं कि पर? ये सब पर हैं। बाहरी–बाह्य हैं । इन पर-पदार्थों के अधीन होकर जो सुख भोगे जाते हैं वे सब पराधीन, परवश, परतन्त्र ही कहलाते हैं। कितनी भी स्वर्ग की अप्सरासमान रूपसुन्दरी-सौन्दर्यवती पत्नी हो, उसके शरीर का उपभोग कर पराए शरीर के जरिए शारीरिक सुख भोगना, वैषयिक सुख भोगना, परवश ही कहलाएगा। कल यदि पत्नी रोगग्रस्त–बीमार रही, या न भी रही, मृत्यु पा गई या फिर आप स्वयं ही शक्तिहीन बन जाओगे तब क्या करोगे? फोन, टी.वी, रेडीयो, वीडियो आदि साधन बिगडने पर, या बिजली चली जाने पर आपकी हालत कैसी होगी? बिना पंखे या वातानुकूलित साधनों