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दिया। एक अच्छे ऊँचे स्तर की पुस्तक का अभाव लगा कि जो जन साधारण के लिए उपयोगी हो । बस, अचानक ही मेरे मन में उत्कट भावना जगी कि... मेरे माता-पिता, पत्नी-पुत्रवधु आदि आत्मार्थी व्यक्तियों की पुण्यस्मृती में गुणस्थान विषयकं अच्छी सर्वभोग्य पुस्तक प्रकाशित करूँ-कराऊँ । जिससे सर्वसाधारण लोगों की समझ में आए और सभी विशेष लाभ उठा सकें।
बस, संकल्प ने बल दिया और मैं वृद्धावस्था में भी इसकी शोध में निकल पड़ा। मैं कई विद्वान संतों से मिला और गुणस्थानविषयक पुस्तक लिखने के लिए निवेदन किया। लेकिन अनेकों ने अपनी व्यस्तता के कारण असमर्थता व्यक्त की। अचानक तपागच्छ के संत पंन्यास श्री अरुणविजयजी महाराज द्वारा लिखित पुस्तक “कर्म की गति न्यारी” मुझे प्राप्त हुई। मैने पढी। कर्म का विषय बडा ही रुचिकर लगा । लेखन शैली, भाषा की सरलता, तथा चित्रोंसहित समझाने की विशिष्ट पद्धति से मेरा मन बहुत प्रभावित हुआ। अतः ऐसे विद्वान गुणस्थान विषय पर अच्छा लिख सकेंगे... मेरी मनोकामना पूर्ण कर सकेंगे, ऐसी धारणा के साथ लेखक तपागच्छीय संत पंन्यासजी श्री अरुणविजयजी महाराज की शोध की । ढूंढते-ढूंढते आखिर पता लगाया और हम बेंगलोर पहुँचे । पूज्यश्री विहार कर निकल गए थे । एक छोटे गांव में संपर्क किया। पूज्यश्री को निवेदन किया- "गुणस्थान" के विषय पर लेखन करने के लिए। पूज्यश्री बहुत प्रसन्न हुए। और लेखन करने के लिए मुझे स्वीकृति प्रदान की। इससे मेरा भी मन मयूर नाच उठा था। लेकिन पूज्यश्री विहार में लम्बे प्रवास में थे, काफी व्यस्त भी थे। अतः चाहते हुए भी नहीं लिख पाए । काफी लम्बा विहार करके पूज्यश्री मद्रास पधारे । वहाँ पुनः हम गए । पूज्यश्री ने हमें पू. अध्यात्मयोगी आचार्यश्री कलापूर्णसूरि महाराज के पास पत्र लिखकर भेजा। पूज्यश्री का निवेदन था कि इस गहन शास्त्रीय विषय को पू. आचार्यश्री ही लिखें तो अच्छा होगा। लेकिन पू. आचार्यश्री ने पुनः पंन्यासजी अरुणविजयजी महाराज को ही आज्ञा फरमायी कि आप ही लिखो । पूज्यश्री पंन्यासजी पुनः लम्बा विहार करके बेंगलोर दूसरा चातुर्मास करने पधारे । वहाँ जून १९९४ में इस पुस्तक को लिखने का कार्य हाथ में लिया । यद्यपि सेंकडों शासन के कार्यों की जिम्मेदारी सिर पर होते हुए भी... प्रातः ब्राह्म मुहूर्त में पूज्यश्री नियमित ग्रन्थ लेखन करते गए और उसकी प्रतिलिपि हमें भिजवाते रहे । मुझे भी रोज का स्वाध्याय मिलता था। आत्मा में बडी शान्ति होती थी।
बेंगलोर में पूज्यश्री लगभग प्रथम भाग लिख पाए और इतने में पुनः विहार करने का अवसर आ गया। लगभग २५०० कि. मी. लम्बा विहार करके बेंगलोर से पूज्यश्री