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दृष्टि से देव-गुरु धर्म की रत्नत्रयी का विचार किया जाता है । जानना, मानना और आचरण करना इन तीनों की दृष्टि से जीवों की सम्यग् एवं मिथ्या दृष्टि रहती है । देव-गुरु-धर्म की तत्त्वत्रयी का स्वरूप अपने रूप में तो यथार्थ सही ही है, परन्तु उनका स्वरूप जाननेवाले हमारे जैसे जीव, जानने के विषय में सही या गलत भी जान सकते हैं । उसी तरह मानना अर्थात् श्रद्धा रखने के विषय में सही या गलत श्रद्धा ही रख सकते हैं । उसी तरह आचरण करने के विषय में सही या गलत आचरण भी कर सकते हैं । जो सही आचरण है वह सम्यक्त्व है और जो गलत आचरण है वह मिथ्यात्व है । इस तरह लौकिक एवं लोकोत्तर दृष्टि से देव, गुरु, धर्म की तत्त्वत्रयी की श्रद्धा एवं आचरण करने के क्षेत्र में जो मिथ्या (गलत) पद्धति है, उस मिथ्यात्व के जो ६ भेद होते हैं उनका विवेचन इस प्रकार है१. लौकिक देवगत मिथ्यात्व
देव तत्त्व अर्थात भगवान के विषय में लौकिक और लोकोत्तर दो भेद होते हैं। . सर्वज्ञ-वीतरागी लोकोत्तर कक्षा के देव (भगवान कहलाते हैं जबकि रागी-द्वेषी अल्पज्ञ-भोगी-वैभवी तथा मोहादि दोषग्रस्त संसारी ऐसे लौकिक कक्षा के देव को भगवान रूप मानना यह लौकिक देवगत मिथ्यात्व कहलाता है। २. लौकिक गुरुगत मिथ्यात्व
इसमें गरु के विषय की बात है। कंचन-कामिनी के भोगी, संसार के संगी, भोगासक्त एवं भोगलीला या पापलीला में रचे-पचे तथा अनाचारसेवी, कंदमूलादि अभक्ष के भक्षक, तथा उन्मार्गदर्शक ऐसे बाबा, फकीर, जोगी–जोगटा, संन्यासी-तापस आदि को जो गुरुपद उपयोगी ३६ गुण के धारक नहीं है, उन्हें भी गुरु के रूप में मानना यह इस प्रकार का मिथ्यात्व है। ३. लौकिक पर्वगत मिथ्यात्व
धर्माचरण के क्षेत्र में पर्व आदि पवित्र दिनों में जो कर्मक्षयकारक उपासना करनी चाहिए, वह न करते हुए उसका लक्ष्य छोड़कर कुछ और ही करें, या विपरीत ही करें, इससे मिथ्यात्व दोष लगता है । “आत्मानं पुनाति इति पर्व" जो आत्मा को पवित्र करे वह पर्व कहलाता है । आत्मा पवित्र कब होगी? जब अशुभ कर्म का क्षय होगा तब । अशुभ पाप कर्म का क्षय कब होगा? जब विशेष रूप से पर्व-दिनों की उपासना करेगी तब । परन्तु जो लोक में प्रसिद्ध है ऐसे लौकिक त्यौहार हैं, जिसमें तप-त्यागादि की कर्मक्षयकारक
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आध्यात्मिक विकास यात्रा