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________________ साधना का नाममात्र भी नहीं है तथा जिसमें सिर्फ खाना, पीना तथा मनोरंजन का ही एक मात्र उद्देश्य है ऐसे होली आदि पर्व मानना या मनाना यह लौकिक पर्वगत मिथ्यात्व कहलाता है । ४. लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व राग लोकोत्तर कक्षा के सर्वोत्तम देवाधिदेव वीतराग भगवान जो सर्वदोषरहित हैं, - द्वेषादि रहित हैं, स्त्री - शस्त्रादि संबंध रहित हैं ऐसे सर्वज्ञ अरिहंत भगवान को मानकर भी इहलोक के सुख की आकांक्षा, पौगलिक सुखों की इच्छा, मुझे अच्छी स्त्री मिले, संतान की प्राप्ति हो, धन-धान्य - सम्पत्ति मिले, सत्ता - पद - प्रतिष्ठा - यश-कीर्ति की प्राप्ति हो, आदि सब प्रकार के सांसारिक सुख मिले इसके लिए प्रार्थना या स्तुति करना या भगवान ही यह सब कुछ देनेवाले हैं इस दृष्टि से मानना, या पूजना, या जपना, या मान्यता (मानना) आखड़ी, बाधा रखना । यह लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व कहलाता है । लोकोत्तर कक्षा के देव-गुरु- धर्म तीनों में श्रद्धा या मान्यता जरूर सही है, स्वरूप सही जानता है, परन्तु आराधना या उपासना जिस हेतु से करता है वह गलत है, अतः यह विपरीत भावाचरण रूप मिथ्यात्व है । उदाहरण के रूप में जैसे हलवा, पुड़ी आदि बनानी है, आपको हलवा, पुडी के स्वरूप का ज्ञान भी सही हो, परन्तु यदि बनाने की रीति या विधि सुव्यवस्थित नहीं आती है, और जिस किसी तरह एक भगोने में आटा, घी, शक्कर पानी आदि मिलाने पर हलवा नहीं बनेगा, उल्टी बाजी बिगड़ जाएगी, उसी तरह लोकोत्तर कक्षा के देव - गुरु-धर्म की प्राप्ति आपको जरूर हुई है, परन्तु यदि उपासना-आराधना की रीति या विधि-पद्धति या हेतु सही नहीं है तो विपरीत रीत्ति - हेतु से की गई साधना वह भी मिथ्यात्व पोषक बन जाएगी । इस तरह लोकोत्तर कक्षा के देव-गुरु- धर्म आदि सही होते हुए भी, साधना विपरीत होने के कारण मिथ्यात्व दोष लग जाएगा । ५. . लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व I उपरोक्त हेतु ही इस भेद में भी है । सिर्फ भेद इतना ही है कि यहाँ देव के स्थान पर गुरु है । पंचमहाव्रतधारी, संसार के त्यागी, विरक्त वैरागी, त्यागी - तपस्वी, कंचन - कामिनी के त्यागी एवं छत्तीस गुण के धारक साधु-मुनिराजों की मान्यता श्रद्धा एवं ज्ञान तो सही है, परन्तु उपासना की रीति - हेतु विपरीत है । जैसे संसार के त्यागी, वैरागी से संसार के रंग-राग पोषक आशीर्वाद लेना, शादी - सगाई हो जाय, स्त्री- पुत्र - संतान आदि प्राप्त " मिथ्यात्व" - - प्रथम गुणस्थान ४०३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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