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भेदों में कोई विशेष अन्तर नहीं लगता है क्योंकि दोनों ही एक दूसरे के ठीक उल्टे हैं । फर्क इतना ही है कि पहला प्रकार मूढ़ या अज्ञान दशा में या समझदार ज्ञानवाले को भी होता है । इस दूसरे प्रकार के मिथ्यात्व में विचारशक्ति का या ज्ञानदशा का विकास होते हुए भी अभिनिवेश के कारण किसी एक दृष्टि को कदाग्रहवश पकड़कर रखने के कारण विचार शक्ति या ज्ञानदशा अतत्त्व के पक्षपात के कारण मिथ्या दृष्टि हो जाती है। यह उपदेशजन्य होने के कारण अभिग्रहीत कहलाता है, जबकि पहले प्रकार में श्रद्धा का अभाव रूपजो मिथ्यात्व है उसमें विचार दशा विकसित हई ही न हो, ऐसे अनादिकालीन कर्मावरण के दबाव से जो मूढ़ दशा होती है, ऐसे समय में तत्त्व की अश्रद्धा या अतत्त्व की श्रद्धा भी नहीं होती है । उस समय मात्र मूढ़ता के कारण अश्रद्धा कह सकते हैं । यह उपदेश निरपेक्ष, नैसर्गिक होने के कारण अनभिग्रहीत कहलाती है। किसी दृष्टि पंथ या पक्ष या विपक्ष का एकान्तिक कदाग्रह अभिग्रहीक मिथ्यात्व कहलाता है। यह अभिग्रहीक मिथ्यात्व विकसित विचारशक्तिवाले मनुष्य में होता है। जबकि मूढदशा कां अनभिग्रहीक मिथ्यात्व कृमि-कीट-पतंग-पशु-पक्षी आदि मूर्च्छित चैतन्यवाले जीवों में रहता है ।
लौकिक-लोकोत्तर भेद से ६ प्रकार का मिथ्यात्व
लोकः लोकोत्तर भेदे षड्विध, देव-गुरु वली पर्वजी, शक्ते तिहां लौकिक त्रण आदर, करतां प्रथम निगर्वजी। लोकोत्तर देव माने नियाणे, गुरु ने लक्षणहीना जी, पर्वनिष्ठ इहलोकने काजे, माने गुरुपद लीना जी ।।
मिथ्यात्व के ६ भेद लौकिक मिथ्यात्व
लोकोत्तर मिथ्यात्व
लौकिक लौकिक लौकिक लोकोत्तर लोकोत्तर .लोकोत्तर देवगत गुरुगत पर्वगत देवगत गुरुगत पर्वगत
तत्त्व के क्षेत्र में देव-गुरु एवं धर्म की तत्त्वत्रयी बताई गई है। इस तत्त्वत्रयी में धर्मसंबंधी सारा तत्त्वज्ञान समाया हुआ है । अतः इन तीन के बाहर धर्म की कोई बात नहीं है। धर्म की समस्त बातें इन तीन में समा जाती हैं । यहाँ पर लौकिक-लोकोत्तर आदि
"मिथ्यात्व” – प्रथम गुणस्थान
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