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है ? जब कहीं भी आधारभूत प्रमाण नहीं मिलता है तो फिर निरर्थक क्यों ऐसी मान्यता प्रचलित कर दी है कि ईश्वर अर्थात् सृष्टि का सर्जनहार । क्या ऐसी व्याप्ति बनाई गई है कि..जो जो सृष्टि कर्ता है वह ईश्वर है या जो जो ईश्वर है वह वह अनिवार्य रूप से सृष्टिकर्ता ही है । क्या यह जरूरी है? क्या ऐसा हो सकता है? वैदिक मान्यता जो हो वही सही हो? ऐसा मानकर वैदिक मान्यता की ही बात सभी दर्शनों को माननी ही चाहिए ऐसा कोई नियम है?
वैदिक दृष्टिकोण से दूसरे दर्शनों को देखना भी गलती है । क्या ऐसा कोई ठेका सभी दर्शनों ने ले रखा है कि... वैदिक दर्शन-जो और जैसा माने वैसा ही सभी दर्शनों को मानना अनिवार्य है? जी नहीं, कभी भी नहीं। जैन दर्शन स्वतन्त्र दर्शन है । जैन दर्शन को भूल से भी वैदिक दर्शन से निकला हुआ न मानें । न ही जैन धर्म हिन्दुधर्म से निकली हई शाखा है । जैन धर्म हिन्दु धर्म की शाखा नहीं है । मात्र यज्ञविहित हिंसा का विरोध करने के लिए ही जैन धर्म निकला है। कोई कहता है कि सिर्फ यज्ञीय हिंसा का निवारण करने के लिए ही महावीर ने अवतार लिया है। महावीर को ही जैन धर्म के संस्थापक बताकर जैन धर्म की शुरुआत आदि करनेवाले महावीर को कहा। और जैन धर्म की शुरुआत भ. महावीर से हुई। आज की पठ्यपुस्तकों में ऐसा लिखा जाता है कि.... Lord Mahaveer was the founder of Jainism . He was 24th Tirthankara . 37T9rf तो इस बात का है कि... एक तरफ तो भ. महावीर को जैन धर्म के प्रवर्तक संस्थापक कह रहे हैं और दूसरी तरफ उनको चौबीसवें तीर्थंकर कह रहे हैं । कहाँ गई इन कहलानेवाले विद्वानों की अक्कल? क्या बिना अक्कल के भी विद्वान कहलाने योग्य हो सकते हैं? ऐसे तथाकथित विद्वान पाठ्यपुस्तकों में ऐसा लिखकर अपनी अक्कल का प्रदर्शन करके लाखों को गुमराह करने का एवं असत्य भ्रामक विचारधारा प्रचारित करने का इतना बडा अपराध उन कहलानेवाले विद्वानों पर आएगा।
ऐसे तथाकथित विद्वानों में महाराष्ट्र-पूना शहर के डॉ. पी. एल. वैद्य का पहला नंबर आता है । उन्होंने तो यहाँ तक सीमा का उल्लंघन कर दिया कि.. जैन धर्म पार्श्व नाम के एक संन्यासी ने निकाला है । पार्श्व नाम का एक बावा था। धीरे धीरे उसने अपने गुट में लोगों को इकट्ठा किया और बाद में अपने आपको पार्श्वनाथ कह दिया और जैन धर्म चलाया। फिर वह अपने आप को जैन धर्म का २३ वां तीर्थंकर कहने लगा। ऐसे जैन धर्म में केवलज्ञान जैसी कोई चीज संभव ही नहीं है । तथा ऐसे जैन धर्म में ४५ आगम भी नहीं है । ये जो हैं वे प्राचीन नहीं हैं । ऐसा जैन धर्म सर्वथा नास्तिक धर्म है । इस प्रकार
"मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान
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