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________________ की ऐसे भले तथाकथित विद्वान डॉ.पी.एल.वैद्य ने मनघडंत शेख चिल्ली की कल्पनाओं को मराठी भाषा में अपने लेख “अवैदिक किंवा नास्तिक दर्शनें" में लिख दिया है । जिसे पूना की वेदशास्त्रोत्तेजक सभा नामक संस्था ने वर्षों पहले छपवाकर प्रसिद्ध किया था। ऐसे महाअज्ञानी अपनी मनघडंत कल्पना को बाहर फेंक कर सबसे पहले तो वे अपने अज्ञान का अक्कलमंदता का-मूर्खता का प्रदर्शन करते हैं और हजारों लोगों को गुमराह करके भ्रमणा में डालकर भटकाते हैं। थोडी सी रत्ती भर भी अक्कल ऐसे तथाकथित विद्वान में होती तो क्या वे पार्श्वनाथ को एक तरफ तो बावा संन्यासी कहते और दूसरी तरफ २३ वें तीर्थंकर कहते? यह तो सर्व सामान्य व्यक्ती को भी समझ में आए ऐसी बात है कि २३ के पहले २२ जरूर होने ही चाहिए । २२ होने के बाद ही २३ वे होते हैं। अतः पार्श्वनाथ को २३ वें कहने से यह प्रमाणभूत स्वयंसिद्ध हो जाता है कि... इनके पहले २२ हुए हैं । अगर इन भले तथाकथित विद्वान ने पहले के २२ के बारे में कोई अभ्यास किया होता या इतिहास के परिप्रेक्ष्य में भी देखा होता तो भी कुछ तो ख्याल आता । लेकिन विनाशकाले विपरीतबुद्धिः की कहावत यहाँ चरितार्थ होती साफ दिखाई देती है। ___ एक तरफ तो तीर्थंकर कहते हैं और दूसरी तरफ केवलज्ञान को ही मानना नहीं है। इस भले आदमी को रत्ती भर भी जैन सिद्धान्तों का ज्ञान हो ऐसा लगता नहीं है ... यदि भूतकाल में हुए अनन्त तीर्थंकरों में भी तीर्थंकरपने के साथ केवलज्ञान की व्याप्ति कैसी है ? ऐसा तर्कबुद्धि से भी विचार किया होता तो भी स्पष्ट हो सकता था । उदाहरण के लिए- जो जो तीर्थंकर हैं वे वे केवलज्ञानी हैं? या जो जो केवलज्ञानी हैं वे वे तीर्थंकर हैं ? अनिवार्यता किसके साथ जुडती है ? अन्वयव्याप्ति होती है या व्यतिरेकव्याप्ति ? जैसे- जहाँ धुंआ है वहाँ अग्नि है या जहाँ अग्नि है वहाँ धुंआ होता है ? किसका किसके साथ अविनाभावी संबंध है ? इसके उत्तर में व्याप्ति स्पष्ट कहती है कि अग्नि धुंए के बिना भी रह सकती है परन्तु.धुंआ कभी भी अग्नि के बिना रहना संभव ही नहीं है । एक लोहे के गोल को भट्टी में तपाकर रख दिया जाय तो वहाँ कभी भी धुंआ नहीं रहता है । हाँ अग्नि जरूर है वहाँ । ठीक वैसे ही इस अन्वय-व्यतिरेकी व्याप्ति के न्याय के आधार पर-यहाँ भी विचार किया जा सकता है कि... केवलज्ञान तीर्थंकर के बिना भी रह सकता है । अतः तीर्थंकर के बिना भी गणधर आदि केवलज्ञानी होते ही हैं । परन्तु वे तीर्थंकर नहीं होते हैं। इसीलिए ही वे गणधर कहलाते हैं। जब केवलज्ञान प्राप्त करते हैं तब वे भी केवलज्ञानी सर्वज्ञ कहलाते हैं । परन्तु तीर्थंकर के साथ केवलज्ञान का अविनाभाव ३९४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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