SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्या वैदिक विचारसरणी को न मानने से या वेदप्रामाण्य न मानने मात्र से जैन नास्तिक सिद्ध हो सकते हैं ? यदि इस व्याख्या को प्रमाणभूत - आधारभूत मानकर सोचा जाय तो क्या सांख्य- नैयायिक - मीमांसक - वैशेषिक योग आदि अन्य दर्शन सभी वेदप्रामाण्यवादी हैं ? वेद को ही प्रामाण्यरूप से स्वीकार करके वेद के अनुरूप होकर चलनेवाले हैं । इसलिए इन सभी दर्शनों को नास्तिक नहीं परन्तु आस्तिक गिना जाता है । ऐसी दार्शनिक क्षेत्र में प्रचलित मान्यता है । क्या यह सही है ? या विपरीत ? इसका सूज्ञ विद्वानों को तटस्थबुद्धि से विचार करना चाहिए । सभी दर्शनों के अभ्यासु स्थूल रूप से जानते ही होंगे- वैसी ऊपर ऊपर की बडी स्थूल कुछ बातें यहाँ मैं प्रस्तुत करता हूँ जिससे इन कहे जानेवाले आस्तिक दर्शनों में परस्पर विसंवादिता तथा विरोधाभास कितना सूर्यप्रकाश की तरह स्पष्ट है उसका ख्याल आएगा । उदाहरणार्थ— वेद अपौरुषेय है । अनादि - अनन्त है । अनुत्पन्न - अविनाशी शाश्वत है । वेद किसी ने बनाया नहीं है ऐसी वैदिकों की विचारधारा है । ठीक इससे विपरीत नैयायिक वेदों को पौरुषेय - पुरुषोच्चारित सिद्ध करते हैं। सेंकडों तर्क- युक्तियाँ देकर अपौरुषेय की युक्ती का खण्डन करके पौरुषेयपना सिद्ध करते हैं । यह बडी स्थूल बात है । बिल्कुल उत्तर दक्षिण जैसी सर्वथा विपरीत मान्यता होते हुए भी क्या नैयायिक वेदनिंदक नहीं कहला सकते हैं ? तो क्या उनको कभी नास्तिक या वेदनिंदक कहा है ? नहीं ? क्यों नहीं ? I दूसरी तरफ वैदिक विचारधारा में ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता माना है । सारी चराचर - जीव - अजीव समग्र सृष्टि ईश्वर ने ही बनाई है। और वह भी वेद में देखकर बनाई है । “धाता यथा पूर्वमकल्पयत् ” जैसी सृष्टि पूर्वकल्प में थी वैसी वेद में देखकर आज इस कल्प में विधाता ने पुनः निर्माण की है । ईश्वर ही सब कुछ कर्ता—हर्ता–पालनहारं— सर्जनहार एवं विसर्जनहार - प्रलयकार है ऐसी वैदिकी विचारधारा के ठीक विपरीत मीमांसक ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने के लिए तैयार नहीं है । मीमांसक मतवादी - कुमारिल भट्ट, प्रभाकर आदि ईश्वरकृत सृष्टि जगत् कर्तृत्ववाद का खण्डन किया है । मीमांसक इसका विरोध स्पष्ट करते हैं । वे इस मान्यता को मानने के लिए स्पष्ट इन्कार करते हैं। तो क्या यहाँ विसंवादिता विरोधाभास नहीं है ? और क्या ऐसी विरोधाभासी विचारसरणी से नास्तिक कहे गए ? क्यों नहीं ? "मिथ्यात्व" • प्रथम गुणस्थान - — ३९१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy