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मिथ्यात्व होता है । यह अभिनिवेशिक मिथ्यात्व मात्र भव्य जीवों को ही होता है । वैसे पाँचों प्रकार के मिथ्यात्व भव्यों को प्रधानरूप से होते हैं ।
भव्य और अभव्य दोनों जीवों को अनादि काल से मिथ्यात्व रहता ही है । निगोद की अवस्था में भव्य-अभव्य सभी जीव रहे हुए हो उनको अनाभोग नामक मिथ्यात्व होता है । अन्य नहीं । साक्षात् अथवा परम्परा से भी तत्त्व की अप्रतिपत्ति यह अनाभोग मिथ्यात्व का स्वरूप है । एकेन्द्रियादि जीव जो अव्यक्त अवस्था में हैं ऐसे मुग्ध जीवों को जिन्हें तत्त्व क्या और अतत्त्व क्या कुछ भी ख्याल नहीं है ऐसे जीवों को अनाभोग मिथ्यात्व कहते हैं । अर्थात् जिन जीवों में सर्वथा विचार शक्ती ही नहीं होती है ऐसे जीवों में अनाभोग मिथ्यात्व की प्राधान्यता रहती है ।
अभिग्रहिक मिथ्यात्व
यह भी भव्य - अभव्य दोनों जीवों को संभवित होता है । जीवादि तत्त्वों का वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होते हुए भी स्वयं जीव ने जिस विषय की पक्कड पकड कर रखी है, जिसमें उसकी मान्यता हो उसको छोडने के लिए तैयार ही नहीं है । चाहे लाखों युक्तियों से समझाया जाय परन्तु वह किसी भी परिस्थिति में अपनी पक्कड छोडने के लिए तैयार नहीं है । भले ही वह मन में समझ भी लेता है परन्तु अपनी पक्कड - कदाग्रह छोडने के लिए कभी भी तैयार नहीं रहता है। ऐसे अभिग्रहिक मिथ्यात्व के लिए ६ विकल्प धर्मपरीक्षा ग्रन्थकार ने इस प्रकार दर्शाए हैं
णत्थि णिच्चो पण कुणs, कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं । थिय मोक्खोवाओ, अभिग्गहिअस्स छ विअप्पा
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णत्थित्ति— (टीका) १) नास्त्येवात्मा, २) न नित्यात्मा, ३) न कर्ता, ४) कृतं न वेदयति, ५) नास्ति निर्वाणम्, ६) नास्ति मोक्षोपाय इत्यभिग्रहिकस्य चार्वाकादिदर्शनप्रवर्तकस्य परपक्षनिराकरणप्रवृत्तद्रव्यानुयोगसारसन्मत्यादिग्रन्थप्रसिद्धाः षड्विकल्पाः ते च सदा नास्तिक्यमयानामभव्यानां व्यक्ता एवेति कस्तेषामभिग्रहिकत्वे संशय इति भावः ।
छः विकल्प- १) आत्मा है ही नहीं । आत्मा जैसी कोई वस्तु ही नहीं है ।
२) आत्मा नित्य ही नहीं है । यदि आत्मा है ऐसा विचार माने तो उसे सर्वथा नित्य मानना ही नहीं । अनित्य मानें
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"मिथ्यात्व" प्रथम गुणस्थान
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