________________
किया-माना | और यह स्पष्ट कर दिया कि जगत में एक मात्र ब्रह्म एक ही तत्त्व का अस्तित्व । अन्य किसी का अस्तित्व ही नहीं है इसलिए अद्वैतवाद का सिद्धान्त दिखाया । न + द्वैत = अद्वैत । दो वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। एक ही ब्रह्म है। बस, तदितर कुछ भी जगत में है ही नहीं ।
अद्वैतवादियों की इस विचारधारा का थोडासा यहाँ विचार करना चाहिए । ब्रह्म एक ही तत्त्व होता और जगत् जैसा कुछ भी नहीं होता तो जगत् का स्वरूप कहाँ से आया ? क्या शशशृंग की तरह जगत् सर्वथा अभावरूप है ? यदि सर्वथा अभावरूप ही होता और भावरूप नहीं होता तो ईश्वरद्वारा निर्माण कैसे मानना ? एक तरह वही ईश्वर जो जगत् का निर्माण करता है । उसीने बनाया वह सब जगत अभावरूप होने से मिथ्या और बनानेवाला स्वयं सत्यस्वरूप है ? और ईश्वर की महत्ता सृष्टिनिर्माण करने के कारण ज्यादा बताई जाय और दूसरी तरफ जगत् को मिथ्या कहा जाय इस तरह परस्पर वदतोव्याघात जैसी स्थिति बनती है । अच्छा, ईश्वर शब्द से ब्रह्म वाच्य नहीं है, बात भी सही है, लेकिन ईश्वर आया कहाँ से ? ईश्वर की उत्पत्ति में ब्रह्मा कारणरूप है या नहीं ? “ब्रह्मसूत्र” शांकरभाष्य में सूत्र इस प्रकार कहा गया है कि “ एकोऽहं बहु स्याम् प्रजायेय " मैं ब्रह्म एक रूप अकेला ही हूँ । अब बहुरूप अनेकरूप बनूँ । अतः प्रजोत्पत्ति करूँ । यह ब्रह्मा का ही कार्य है । अब ब्रह्म को सत्य मान लेना और उसके कार्य उसी की रचना को मिथ्या-अभावरूप कहना कहाँ तक उचित है ? यदि ब्रह्मा को मानने के लिए तैयार हैं तो फिर उसी की रचनारूप जगत् को मानने में कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए । इस प्रकार की परस्पर विरुद्ध विचारों से विरोधाभासी सिद्धान्त कहलाते हैं । इससे सिद्धान्तों की सत्यता नष्ट हो जाती है ।
इसी तरह वेदों में एक बार कहा गया है कि “मां हिंस्यात् सर्वभूतानि " किसी भी जीव को मत मारो। सभी जीवों को मत मारो” यह विधान करके फिर अपवाद रूप से यज्ञ-याग में गाय और अश्व-घोडा मारकर भी यज्ञ करने की आज्ञा दी गई। तो क्या इस में अश्व और गाय की हत्या - हिंसा नहीं होती है ? और ऐसी पंचेन्द्रिय प्राणी गाय घोडे की हिंसा - हत्या से क्या स्वर्ग मिल सकता है ? हिंसा हत्या का पाप तो नरकगति में
I
जाता है । नहीं कि स्वर्ग में । अब वे क्या करेंगे कि यज्ञ में हिंसा - हिंसा ही नहीं कही जाती । वह तो उत्तम पुण्य है। इससे स्वर्ग की प्राप्ति भी होती है । और अश्वमेध यज्ञ से युद्ध में विजय प्राप्त होती है। बस, एक मात्र वेद - विहित होने से उस गाय - घोडे की हिंसा हिंसा ही नहीं है । और वैदिकी हिंसा पाप ही नहीं है । अतः नरकगति नहीं स्वर्ग की
३६४
आध्यात्मिक विकास यात्रा