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इसी संसार रूपी महल की एक और चौथी दिवाल वेद मोहनीय कर्म की है । यहाँ वेद शब्द का अर्थ है काम संज्ञा । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसकवेद इन तीनों प्रकार का वेद विषय वासना की प्रबल इच्छा जगाता है । एक दूसरे की अपेक्षा रखकर अपनी प्रबल कामेच्छा को पूर्ण करने के लिए दूसरे का उपभोग करता है । मन वासनाग्रस्त रहता है। ऐसी वेदसंज्ञा तीनों प्रकार की है जो तीनों में पड़ी हुई है। सबका मन इस काम-वासना से भरा हुआ है। जिससे वैसी प्रवृत्ति सतत चलती रहती है। आज के वर्तमान काल में पूरे संसार में सर्वत्र देखने पर स्पष्ट पता चलता है कि .. छोटे बडे जीव किस तरह इस वेदसंज्ञा के अधीन बने हुए हैं । संसार के इस महल की यह चौथी दिवाल बडी भयंकर कक्षा की है।
इस तरह संसार रूपी महल जो चार दिवालों का बना हआ है इसमें ये चारों दिवालें एक मात्र मोहनीय कर्म की बनी हुई है । अतः ऐसा स्पष्ट कहते हैं कि यह सारा संसार एक मात्र मोहनीय कर्म का बना हुआ है । मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों के कारण चलता रहता है। इसी प्रकार की प्रवृत्तियों से नए नए कर्म फिर बंधते रहते हैं । फिर कर्मों का बंध होता रहता है। फिर उन कर्मप्रकृतियों के उदय से वैसी स्थिति होती है। इस तरह संसार में कर्मों की शृंखला चलती ही रहती है। जिससे संसार चलता ही रहता है । संसार महल की इन चारों दिवालों में से हमें यहाँ पर एक मिथ्यात्व का विचार करना है। क्योंकि प्रस्तुत विषय मिथ्यात्व के विवेचन का है। पूरे मोहनीय कर्म का नहीं है । वह कर्मग्रन्थ से तथा “कर्म की गति न्यारी” नामक पुस्तक से समझ लेना चाहिए। मिथ्यात्व की व्याख्या
— “मिथ्या नाम विपरीतभावः मिथ्याभावः” विपरीत भाव = परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं । विपरीतता कब आती है ? जब व्यक्ति स्वयं सही-सत्य स्वरूप पहचानता है । सामान्यरूप से यथार्थता की जानकारी रहती है। फिर भी उसे सत्य न मान कर, या उस सत्य को दबाकर-छिपा कर उससे विपरीत असत्य को ही सही मानने की वृत्ति-विपरीतवृत्ति-मिथ्यात्व कहलाती है। मिथ्या असत्य झठे-गलत व्यवहार का भी भाव परिणाम बनाने के अर्थ में 'त्व' भाववाचक प्रत्यय जुड़ा है। ऐसे मिथ्यात्व की भावना विपरीत वृत्ति बनाती है । इसके कारण ऐसी वृत्तिवाले जीव की वृत्ति एवं दृष्टि दोनों ही ऐसी बन जाती है । वृत्ती बनने के कारण मिथ्यात्वी कहते हैं और दृष्टि ही वैसी बनने के कारण मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा