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ममकाराहंकारावेषां मूलं पदद्वयं भवति।
रागद्वेषावित्यपि तस्यैवान्यस्तु पर्यायाः ॥ ममकार और अहंकार रूप ये राग और द्वेष दो ही मूल रूप हैं । शेष अन्य सभी तो इनके पर्याय मात्र हैं। ममत्व बुद्धि मेरेपने के भाव को ही ममकार कहते हैं। और अभिमान-गर्व-घमण्ड को अहंकार बुद्धि कहते हैं । चारों कषायों का समावेश इन दोनों में हो जाता है । सर्व कर्मों की मूल जड ये दो ही कारक तत्त्व हैं । ये दोनों तत्त्व संसारी अवस्था में सदा ही आत्मा के साथ रहते हैं । ऐसा पीछा पकडते हैं कि छोड़ने के लिए ही तैयार नहीं है । राग-द्वेष की तीव्रता से क्रोधादि कषायों की भी तीव्रतम स्थिति खडी होती है । और कषायों की तीव्रता के कारण कलह में बडी भारी तीव्रता आती है। इस तरह तीव्रतम स्थिति की शृंखला से बडे भारी कर्मों का बंध होता है । और कालान्तर में बडी भारी दीर्घ सजा भी भुगतनी पडती है। _
मिथ्यादृष्ट्यविरमणप्रमादयोगास्तयोर्बलं दृष्टम्। मध्यादृष्ट्वाचन
तदुपगृहीतावष्टविधकर्मबन्धस्य हेतु तौ ।। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और मन-वचन-काया के योग ये चारों राग-द्वेष के सहायक हैं । मिथ्यात्वादि से उपगृहित राग और द्वेष आठों प्रकार के कर्म आत्मा को बंधाते हैं । अतः राग द्वेष के मुख्य सहायक प्रमादादि हैं । इनको कम करके भी हम राग-द्वेष का प्रमाण घटा सकते हैं।
संसाररूपी महल की दूसरी दिवाल कषाय की है । जो बडी ही मजबूत है । जिसमें सारा संसार फसा हुआ है । कषायग्रस्त सभी जीव हैं।
__ संसाररूपी महल की तीसरी दिवाल नोकषाय की है । नो अक्षर अभावसूचक नहीं है। परन्तु सहायक अर्थ में है । यह ६ प्रकार का मुख्य है १) हास्य, २) रति, ३) अरति, ४) भय, ५) शोक और ६) जुगुप्सा । ये सभी मूल कषाय राग-द्वेष-क्रोधादि के मुख्य सहायक हैं । उनको जागृत करने में भी इनकी सहायता रहती है। संसार के सभी जीवों में हसना, प्रीति–अप्रीति, पसंद-नापसंद, भयसंज्ञा, शोक-विषाद-संताप की प्रवृत्ति, तथा दुर्गंछा आदि ये सभी प्रवृत्तियाँ भरी पडी हैं । संसार के जीव इनसे ग्रस्त रहते हैं और सतत वैसी प्रवृत्तियों में फसे रहते हैं।
“मिथ्यात्व” – प्रथम गुणस्थान
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