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rai को आपने बोलते हुए सुना होगा ? आत्मा परमात्मा कुछ है ही नहीं ? लोक परलोक है ही नहीं । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म जैसी कोई बात नहीं है । स्वर्ग-नरक किसी ने देखे ही नहीं है । इसलिए निरर्थक क्यों मानना ? पुण्य-पाप कुछ नहीं है । धर्म-अधर्म जैसा कुछ भी नहीं है । अतः क्यों उपवासादि तप करना ? खाओ - पीओ - मौज करो । कर्म और कर्म का फलादि ये सब हंबक बाते हैं । इसलिए यहीं जो सुख भोगने के लिए मिले हैं बस, उनको भोगते हुए सुख-चैन से जीवन जीओ। इसी तरह किसी भी तत्त्वों की बात को न माननेवाले मिथ्यात्वी जीवों की निन्नानवे फीसदी संख्या में लोगों से भरा हुआ यह संसार है। ऐसे ही लोगों की संख्या ज्यादा है। ऐसे लोग इस तरह बोलकर सर्वथा नास्तिक वृत्ति से कुछ भी न मानते हुए जीते हैं और अपने विचारों की भाषा बनाकर दूसरों को भी अपने विचारवाले बनाते रहते हैं । इस तरह संसार की एक दिवाल मिथ्यात्व की बडी मजबूत है ।
दूसरी दिवाल कषाय की है । कष + आय कषाय । कष अर्थात् संसार और आय अर्थात् लाभ । ऐसे संसार का लाभ जिससे सदा होता ही रहे उसे कषाय कहते हैं । लाभ अर्थात् वृद्धि । कषायों से संसार बढता ही रहता है। मुख्य रूप से राग और द्वेष ये दो ही प्रधान हैं । राग सद्भाव प्रिय प्रेम रूप है, इच्छारूप है, सानुकूल है। और ठीक इससे विपरीत द्वेष है । यह दुर्भावरूप है। वैमनस्य वैर- दुश्मनी भावरूप है। इन दोनों को कषायों की संज्ञा दी है। ये राग-द्वेष ही सबके केन्द्र में जडरूप हैं । इन्हीं का विस्तार ४ कषायों के रूप में है ।
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राग
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कषाय
माया
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लोभ
मायालोभकषायश्चेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधमानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्टः ॥
क्रोध
मान
प्रशमरतिकार वाचकमुख्यजी ने संक्षेप - विस्तार भाव की विवक्षा से स्पष्ट किया है कि— राग के अंतर्गत माया और लोभ आते हैं । माया - लोभ का समावेश राग में होता इसे बना है। और क्रोध तथा मान का समावेश द्वेष में होता है । अतः ४ क्रोधादि को कषाय कहो या संक्षेप भाव से मात्र राग- - द्वेष ही कहो एक ही बात है ।
है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा