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________________ श्री उत्तराध्ययन सूत्र आगम के ३३ वें कम्मपयडी अध्ययन में इस तरह मोहनीय कर्म के भेद-प्रभेद दर्शाए गए हैं मोहणिज्जंपि दुविहं, सणे चरणे तहा। दंसणे तिविहं वुत्तं, चरणे दुविहं भवे ॥८ ॥ सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य। एआओ तिण्णि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे ॥९॥ चरित्त मोहणं कम्मं, दुविहं, तु विआहि। कसाय वेअणिज्जंतु, नो कसायं तहेव य ॥१०॥ सोलसविह भेएणं, कम्मं तु कसायजं। , सत्तविह नवविहं वा, कम्मं नोकसायजं ॥११॥ मोहनीय कर्म की प्रचुरता का बना हुआ संसार १ मिथ्यात्व ४ वेद. विषय वासना काम संज्ञा + १कषाय ३ नोकषाय इस समस्त संसार पर एक विहंगावलोकन करने से स्पष्ट लगेगा कि सारा संसार एक मात्र मोहनीय कर्म की प्रचुरता का ही बना हुआ है । एक मकान की जैसे चार दिवालें होती हैं, चारों तरफ दिवालों से घिरा हआ कोई मकान-भवनादि होते हैं, ठीक वैसे ही इस संसाररूपी मकान की चारों दिवाले मोहनीय कर्म की प्रकृतियों की बनी हुई हैं। जिसमें पहली एक दिवाल तो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की है । बडी ही मजबूत पत्थर की बनी हुई है यह दिवाल। मिथ्यात्व की धारणा–मान्यता काफी ज्यादा मजबूत है। वैसी ही विचारधारा रखकर सभी जीव संसार में व्यवहार करते हैं । बोलते हैं । चलते हैं। वैसे "मिथ्यात्व” – प्रथम गुणस्थान ३५१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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